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________________ कोप-निषेधे मेतार्य-कथा । जो सुंदर-चित्ताणं पावं चिंतेइ पडइ तस्सेव । जह तीए चिय पुत्ता पडिया न य सागरमियंको । मंतोसहेहि तक्खण जीवावेऊण पुच्छिया चेडी । 'पिय-दंसणाए लुलिओ' चेडीए साहियं एसो॥ नरनाहेणं भणिया देजंतमगिहिऊण रजमिणं । अकय-तवो पक्खित्तो संसारे अंब ! कह इण्हि ? ॥ ताहे कय-कायचो तीए पुत्ताण वि लिहिउं रजं । निक्खंतो नरनाहो जाओ' कालेण गीयत्थो । उजेणीए पत्तो मुणिणो सो भणइ 'निरुवसग्गि' त्ति । तेहि वि भणियं नवरं राय-सुओ मंति-तणओ य ॥ वाहेति सो वि तक्खण-संपत्तो तत्थ साहुणो भणइ । ठवण-कुलाणि उ साहह भिक्खं हिंडामि सयमेव ॥ 'एयं नरिंद-गेहं मुत्तूणं भमसु' जंपियं मुणिणा । सो वि य तत्थ पविट्ठो महया सद्देण उल्लवइ । तरियं वच्चसु एत्तो भणिओ' पडिभणइ राय-महिलाओ'। किं भणह सावियाओं ? अहयं ण सुणेमि कण्णेहिं ।। सोऊण य से सदं अवयरिया दो वि तं मुणिं घेत्तुं । . उवरिम-भूमि पत्ता णच्चसु भणिओ मुणी भणइ ।। 'गायह तुम्भे' एवं पडिवन्ने णच्चिउं समाढत्तो। एयारिस-गेएणं पसुवाल-सुयाण सरिसेण ॥ किं नचावेह ममं ? रुट्ठा उट्ठा(द्धा)इया कुमारा से । तेण वि य पाडिऊणं विओइया सव-संधीसु ॥ ताहे साहू पत्तो उजाणे ते वि पुलइया रना। पंचोत्तरसुर-सरिसा नवरं अच्छीणि चालंति ॥ को पुण नियुद्धकुसलो सागरचंदाउ ? जेण एवं नु । एते कया उ सिटे राया साहुं गवेसंतो ॥ संपत्तो आयरियं तेण वि सिटुं 'न अम्ह ते गेहं । बच्चामो, जइ नवरं पाहुण-साहू गओ होजा' । दिहो रन्ना साहू लज्जिय-बयणेण वंदिय(उ) भणियं । 'कुणसु पसाय इहिं कुमराणं जीव-दाणेण ॥ जोत्तं चिय चंडवडेंसयस्स पुत्ताण साहु-उवसग्गं । कारावे! मुणिणा खरंटिओ परि(रु)स-गिराहिं ।। जइ पवयंति तेसिं मोक्खो जइ ताण रोयए झत्ति । पवावेसु पलत्तं नरवइणा साहुणा दो वि ॥ पवाविऊण सिक्खं जत्तेणं गाहिया तओ' एको । गिण्हइ सम्म दुइओ दुग्गंछए मंति-तणओ त्ति ॥ १ज. °उ। २ क. ल°। 35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002785
Book TitleDharmopadeshmala Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages296
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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