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कुवलयमाला
मेरे जैसा एक अतीव अल्पज्ञ और यथाकथंचित् पुस्तकपाठी सामान्य विद्यार्थी जन, जिसको अभी संशोधन की दिशाकी भी कोई कल्पना नहीं है वैसे एक सिखाऊ अभ्यासीके लिखे गये लेखके विचारोंका स्वागत करते हुए, इस महान विद्यानिधि विद्वानने कितने बडे उदार हृदयसे अपनी भूलका स्वीकार किया और मझे धन्यवाद दिया। मेरे मनमें उसी समयसे जर्मन विद्वत्ता और विद्याप्रियताके प्रति अतीव उत्कृष्ट आदरभाव उत्पन्न हुआ और मैंने उन्हींके प्रदर्शित मार्ग पर चल कर, अपनी मनोगत जिज्ञासा और ज्ञानपिपासाको तृप्त करते रहनेका संकल्प किया। मैं मान रहा हूं कि मेरी यह जो अल्प-खल्प साहित्योपासना आज तक चलती रही है उसमें मुख्य प्रेरक वही संकल्प है।
इस कुवलयमालाके अन्तभागमें जहां हरिभद्रसूरिका उल्लेख किया गया है वह गाथा पूनावाली प्रतिमें कुछ खण्डित पाठवाली थी। मैंने त्रुटित अक्षरोंको अपनी कल्पनाके अनुसार वहां बिठानेका प्रयत्न किया। इसी प्रसंगमें पुनः कुवलयमालाकी प्रतिको वारंवार देखनेका अवसर मिला और मैं इसमेंसे अन्यान्य भी अनेक इतिहासोपयोगी और भाषोपयोगी उल्लेखोंके नोट करते रहा जो आज भी मेरी फाईलोंमें दबे हुए पडे हैं ।
पूनामें रहते हुए ख० डॉ० गुणेसे घनिष्ठ संपर्क हुआ । वे जर्मनी जा कर, वहांकी युनिवर्सिटीमें भारतीय भाषाविज्ञानका विशिष्ट अध्ययन कर आये थे और जर्मन भाषा भी सीख आये थे। अतः वे जर्मन विद्वानोंकी शैलीके अनुकरण रूप प्राचीन ग्रन्थोंका संपादन आदि करनेकी इच्छा रखते थे । वे प्राकृत और अपभ्रंश भाषा साहित्यका विशेष अध्ययन करना चाहते थे। मुझे भी इस विषयमें विशेष रुचि होने लगी थी, अतः मैं उनको जैन ग्रन्थोंके अवतरणों और उल्लेखों आदिकी सामग्रीका परिचय देता रहता था। उनकी इच्छा हुई कि किसी एक अच्छे प्राकृत ग्रन्थका या अपभ्रंश रचनाका संपादन किया जाय । मैंने इसके लिये प्रस्तुत कुवलयमाला का निर्देश किया, तो उनने कहा कि- 'आप इसके मूल ग्रन्थका संपादन करें; मैं इसका भाषाविषयक अन्वेषण तैयार करूं; और अपने दोनोंकी संयुक्त संपादनकृतिके रूपमें इसे भांडारकर रीसर्च इन्स्टीट्यट द्वारा प्रकाशित होने वाली, राजकीय ग्रन्थमालामें प्रकट करनेका प्रबन्ध करें।' इस विचारके अनुसार मैंने स्वयं कुवलयमालाकी प्रतिलिपि करनेका प्रारंभ भी कर दिया।
सन् १९१९-२० में देशमें जो भयंकर इन्फ्लुएंजा का प्रकोप हुआ, उसका शिकार मैं भी बना और उसमें जीवितका भी संशय होने जैसी स्थिति हो गई। ३-४ महिनोंमें बडी कठिनतासे स्वस्थता प्राप्त हुई। इसी इन्फ्लुएंजाके प्रकोपमें, बडौदानिवासी श्री चिमनलाल दलालका दु:खद स्वर्गवास हो गया, जिसके समाचार जान कर मुझे बडा मानसिक आघात हुआ। मैं गायकवाड ओरिएन्टल सीरीझके लिये जिस कुमारपालप्रतिबोध नामक प्राकृत विशाल ग्रन्थका संपादन कर रहा था उसमें भी कुछ व्याघात हुआ। श्री दलाल खयं धनपालकी अपभ्रंश रचना भविस्सयत्तकहा का संपादन कर रहे थे। उसका कार्य अधूरा रह गया । सीरीझका इन्चार्ज उस समय जिनके पास रहा वे बडौदाके ओरिएन्टल इन्स्टीट्यूटके क्युरेटर डॉ० ज. स. कुडालकर मेरे पास आये और दलाल संपादित अधूरे ग्रन्थोंके कामके बारेमें परामर्श किया। भविस्सयत्तकहा का काम डॉ० गुणेको सोंपनेके लिये मैंने कहा और वह स्वीकार हो कर उनको दिया गया ।
____ महात्माजीने १९२० में अहमदाबादमें गुजरात विद्यापीठकी स्थापना की, और मैं उसमें एक विशिष्ट सेवकके रूपमें संलग्न हो गया। मेरे प्रस्तावानुसार विद्यापीठके अन्तर्गत 'भांडारकर रीसर्च इन्स्टीट्यूट'के नमूने पर 'गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर की स्थापना की गई और मैं उसका मुख्य संचालक बनाया गया।
___ मेरी साहित्यिक प्रवृत्तिका केन्द्र पूनासे हट कर अब अहमदाबाद बना। मैंने गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर द्वारा प्रकाशित करने योग्य कई प्राचीन ग्रन्थोंके संपादनकार्यकी योजना बनाई। इन ग्रन्थोंमें यह
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