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भूमिका
सन् 1954 ई. में मैं प्रथम बार देवगढ़ गया था और तभी लगा था कि यहाँ की जैन कला और स्थापत्य भी इतना विपुल, विविध और कलात्मक है कि इसका अध्ययन भारतीय कला और सांस्कृतिक इतिहास के लिए अनिवार्य है। सन् 1958 में सागर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागीय अध्ययन दल (एजुकेशनल टूर) में अपने गुरुजनों के साथ पुनः देवगढ़ गया तो मेरी यह धारणा और अधिक पुष्ट हुई। तब इसके अध्ययन की बात चली। इस दिशा में आंशिक प्रयत्न तो हुए किन्तु विशेषतः जैन कला और स्थापत्य अछूता ही रहा। इसीलिए सागर विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग के अध्यक्ष प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी के निर्देशन में यह 'देवगढ़ की जैन कला का सांस्कृतिक अध्ययन' सन् 1962 में आरम्भ किया।
यातायात के साधनों से रहित, डाकुओं से आतंकित और वन्य पशुओं से आक्रान्त देवगढ़ तथा समीपवर्ती अन्य कला-केन्द्रों के सर्वेक्षण और अध्ययन के लिए बार-बार वहाँ जाने और महीनों रहने आदि में जो अनुभूतियाँ हुईं उनसे कई बार तो लगा कि यह अध्ययन बीच में ही बन्द करना पड़ेगा। एक-दो बार तो ऐसे संकट की स्थिति से गुजरना पड़ा कि आज उसकी कल्पना करके भी रोम खड़े हो जाते
तुलनात्मक और समीक्षात्मक अध्ययन के लिए मैंने दूधई, चाँदपुर, जहाजपुर, सेरोन, अहार, पपौरा, क्षेत्रपाल (ललितपुर), बजरंगगढ़ (गुना), बड़गाँव, बिलहरी, बहुरीबन्द, तिगवाँ, रूपनाथ, भेड़ाघाट, सारनाथ, खजुराहो, साँची, उदयगिरि, वेशनगर, विदिशा, आदि प्राचीन कला-केन्द्रों तथा दिल्ली, लखनऊ, वाराणसी, सारनाथ, मथुरा, विदिशा, साँची, देवगढ़, सागर, रामवन एवं खजुराहो के पुरातत्त्व संग्रहालयों का भी अवलोकन-अनुशीलन किया।
प्रस्तुत प्रबन्ध में मैंने देवगढ़ में उपलब्ध सम्पूर्ण जैन सामग्री का भारतीय कला, स्थापत्य और संस्कृति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में अध्ययन किया है तथा पुरातात्त्विक और साहित्यिक साक्ष्यों एवं अनुश्रुतियों के सन्दर्भ में समीक्षात्मक पद्धति से परीक्षण भी किया है।
पाँच
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