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________________ अंकित हैं, वे तत्कालीन भारत में प्रचलित विभिन्न शैलियों की परिचायक हैं। देवगढ़ के अभिलेखों में से कुछ ब्राह्मी लिपि में और शेष नागरी लिपि में उत्कीर्ण हैं। 6. वेशभूषा और प्रसाधन खजुराहो आदि की भाँति देवगढ़ के कलाकारों ने वेशभूषा और प्रसाधन की विविधता और विशिष्टता की होड़ तो नहीं लगायी पर उन्होंने जो कुछ भी अंकित किया उससे तत्कालीन वेशभूषा और प्रसाधन पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। उनका उद्देश्य आकर्षक वस्त्राभूषणों की अपेक्षा भावपूर्ण छवि अंकित करने का अधिक था। देवगढ़ में भी वेशभूषा आदि की दृष्टि से उत्तरोत्तर विकसित कला के अच्छे नमूने उपलब्ध होते हैं। उनसे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ज्यों-ज्यों समय बीता त्यों-त्यों कलाकार का ध्यान सादगी, भावपूर्णता तथा संयम की ओर से क्रमशः हटता गया और आकर्षक वेशभूषा एवं मुद्राओं तथा मोहक भंगिमाओं की ओर आकृष्ट होता गया। गुप्तकालीन वस्त्र झीने अवश्य होते थे परन्तु उन्हें पहनने का ढंग कुछ ऐसा था कि उनसे सौन्दर्य की अभिवृद्धि तो होती ही थी किन्तु भोंड़ापन या असंयम प्रकट नहीं होता था। परन्तु परवर्ती समय में यह प्रवृत्ति परिलक्षित नहीं होती। वस्त्र अवश्य ही अपेक्षाकृत मोटे दिखाये जाने लगे, किन्तु उनके धारण करने की प्रक्रिया एक दूसरा ही उद्देश्य अभिव्यक्त करती थी; इसे कला का क्रमिक ह्रास ही कहा जाएगा। यह ह्रास देवगढ़ या मध्यवर्ती भारत में ही सीमित न रहा, बल्कि इसने व्यापक रूप भी ले लिया। कला के इस ह्रास की पृष्ठभूमि अत्यन्त स्पष्ट है। गुप्त साम्राज्य एक बद्धमूल और सुप्रशासित साम्राज्य था। गुप्त सम्राट् कला और साहित्य के ही नहीं, धर्म एवं अध्यात्म के भी प्रेमी थे। फलस्वरूप तत्कालीन कला अध्यात्म से अनुप्राणित रही और उसमें सांसारिकता का उभार कम हो सका। गुर्जर-प्रतिहारों के समय तक यह बात न रही पर चूँकि वे लोग भी धर्म और अध्यात्म को महत्त्व देते थे अतः कलागत संयम और भावपूर्णता बहुत कुछ गुप्तकाल की ही भाँति विद्यमान रही। किन्तु इसके पश्चात् कलचुरियों और चन्देलों के समय कला का ह्रास तीव्रगति से हुआ। कलचुरियों पर मत्तमयूर शाखा के साधुओं का प्रभाव था। ये साधु नैतिकता पर किया था, जिनमें तुर्की, नागरी, सभी द्राविड़ी भाषाएँ, कन्नड़, फ़ारसी और उड़िया लिपियाँ भी सम्मिलित हैं। इस अभिलेख की प्रथम सात पंक्तियों में वास्तव में विभिन्न वर्णमालाओं के नमूने हैं, जिनमें अधिकांश द्राविड़ तथा मौर्यकालीन ब्राह्मी भी समाविष्ट हैं, यद्यपि तुर्की और फ़ारसी उनमें नहीं हैं।" 1. प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी : देवगढ़ की जैन प्रतिमाएँ : अनेकान्त : वर्ष 15, किरण 1. पृ. 27। 242 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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