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अंकित करता है' और आत्मसाधना में तन्मय साधु-साध्वियों को भी मूर्तरूप प्रदान करता है। 2
कलाकार की इस अद्भुत, अपूर्व भक्ति भावना ने देवगढ़ को, अन्य तीर्थक्षेत्रों की अपेक्षा कहीं अधिक आकर्षण प्रदान किया है । निस्सन्देह साधु-साध्वियों की इतनी अधिक और विविध मूर्तियाँ किसी भी तीर्थक्षेत्र में उपलब्ध नहीं हुई हैं । (अ) आचार्य
देवगढ़ में आचार्य परमेष्ठी को प्रायः उपदेश मुद्रा में प्रस्तुत किया गया है । 1 उनके समक्ष साधु-साध्वियाँ और कभी-कभी श्रावक-श्राविकाएँ भी बैठकर उपदेशामृत का पान करती थीं। " चतुर्विध-संघ को उनके समक्ष भक्तिपूर्वक बैठा देखकर उनके आचार्यत्व अर्थात् सन्मार्ग पर स्वयं चलते हुए दूसरों को भी चलाने की योग्यता पर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता । ज्ञान के भण्डार उपाध्याय परमेष्ठी को जब हम उनकी वन्दना करते हुए देखते हैं तब हमारी भक्ति भावना उमड़ ही पड़ती है । (ब) उपाध्याय
देवगढ़ में आचार्यों के अतिरिक्त उपाध्यायों की मूर्तियाँ भी दर्शनीय बन पड़ी
1. हाथी दरवाजा, द्वितीय कोट का प्रवेश-द्वार, मं. सं. एक, चार, साहू जैन संग्रहालय आदि तथा चित्र सं. 75 और 77 से 85 तक।
2. मं. सं. 10 के विभिन्न स्तम्भों पर । दे. - चित्र सं. 86 से 89 तक तथा 92, 941
3.
( अ ) आचरन्ति यस्माद् व्रतानि इत्याचार्यः । यस्मात् सम्यग्ज्ञानादिगुणाधारादाहृत्य व्रतानि स्वर्गापवर्गसुखामृतबीजानि भव्या हितार्थमाचरन्ति स आचार्यः । अकलंकदेव : तत्त्वार्थ वार्तिक (राजवार्तिक) : पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य सम्पादित (काशी, 1957 ई.), द्वितीय भाग, पृ. 623 ।
(ब) 'दंसणणाण पहाणे, वीरिय चारित्त वरतवायारे ।
अप्पं परं चजंजइ, सो आइरियो मुणी झेओ ।'
नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्रव्यसंग्रह (जबलपुर, 2492 वीर नि. संवत्), गाथा 52 | (स) 'पञ्चधाचरन्त्याचारं शिष्यानाचरयन्ति च ।
सर्वशास्त्रविदो धीरास्तेऽत्राचार्याः प्रकीर्तिताः ॥'
- मुनि आदिसागर : त्रिकालवर्ती महापुरुष, ( वारासिवनी, 1959 ई.), पृ. 2241 4. दे. - द्वितीय कोट का प्रवेश-द्वार, मं. सं. एक, चार आदि तथा मानस्तम्भ सं. 11 और भी दे. - चित्र सं. 77 से 82 तक ।
5. मं. सं. एक, चार, द्वितीय कोट का प्रवेश-द्वार तथा विभिन्न मानस्तम्भ । और भी दे. - चित्र सं. 77 से 82 तक ।
6. (अ) 'उपेत्य यस्मादधीयते इत्युपाध्यायः । विनयोपेत्य यस्माद् व्रतशीलभावनाधिष्ठानादागमं श्रुताख्यमधीयते स उपाध्यायः ।'
- अकलंकदेव : तत्त्वार्थवार्तिक ( राजवार्तिक), द्वि. भाग., पृ.623)
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मूर्तिकला
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