________________
5
मूर्तिकला ( अन्य मूर्तियाँ)
6. विद्याधरों की मूर्तियाँ
विद्याधर' वे मनुष्य होते थे, जो साधना या तपस्या के फलस्वरूप आकाशगामिनी आदि विद्याएँ सिद्ध कर लेते थे । ये, जैसा कि धर्मकथाओं के अध्ययन से प्रकट होता है, अत्यन्त रसिक और पर्यटन- प्रेमी होते थे। पर जिनेन्द्र-देव के भक्त भी ये बहुत होते थे । देवगढ़ में उनका यही रूप अंकित किया गया है। उन्हें उड़ान भरते हुए तथा तीर्थंकर के मस्तक पर चँवर डुलाते हुए अंकित किया गया है । कभी-कभी वे अपनी प्रेयसियों के साथ यह कार्य करते थे। उस समय वे स्नेहासक्त दृष्टि से एक-दूसरे को निहारते भी जाते थे । कुछ स्थानों पर उनके हाथों में चँवर न देकर माला दी गयी । "
खजुराहो की भाँति अपनी प्रेयसियों के साथ उड़ान भरते - भरते विभिन्न आकृतियों और चेष्टाओं में संलग्न विद्याधरों की लम्बी-लम्बी पंक्तियाँ यहाँ चाहे न हों, पर तोरणों आदि पर अंकित पंक्तियों में विद्याधरों की सशक्त उड़ान कभी भक्तिविभोर और कभी स्नेहाधीन दृष्टि तथा उनके अंग-प्रत्यंग की भंगिमा निश्चय
1. पायार गोउरट्ठल चरियारवरण विराजिया तत्थ ।
विज्जाहरा तिविज्जा वसंति छक्कम्मसंजुत्ता ॥
- नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती : त्रिलोकसार (बम्बई, 1918 ई.), गाथा 7091 ५. मं. सं. 12 के गर्भगृह के प्रवेश-द्वार के तोरण पर (दि. - चित्र सं. 19-20) तथा मं.सं. 28 के अंगशिखर पर (दे. - चित्र सं. 32 ) ।
3. मं.सं. एक तथा चित्र सं. 62 ।
4. मं.सं. दो के दसवें फलक पर और भी दे. - चित्र सं. 66, 67, 74 आदि ।
5. जैन चहारदीवारी (मं.सं. 8 के 60, 61 आदि ।
Jain Education International
दायें) भीतर की ओर। और भी दे. - चित्र सं. 52, 53, 54, 57,
For Private & Personal Use Only
मूर्तिकला : 167
www.jainelibrary.org