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________________ की गोमुख यक्ष की मूर्ति, आदिनाथ की जिस मूर्ति के साथ उत्कीर्ण की गयी है, वह इतिहास और कला की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। गोमुख-मूर्ति की आनुपातिक लघुता ने इस सम्पूर्ण मूर्ति-फलकं को गुप्तोत्तर काल का सिद्ध करने में बड़ा बल दिया है। मं. सं. 12 की उपर्युक्त गोमुख-मूर्ति (चित्र संख्या 98) 1 फुट 1 इंच ऊँची और 9 इंच चौड़ी है। उसका मुख गौ (बैल) के समान और शेष शरीर मनुष्य के समान है। वह अपने चार हाथों में माला और कलश आदि लिये है। पायल, कटिबन्ध, हार, शीशमुकुट आदि आभूषण तथा यज्ञोपवीत अत्यन्त प्रभावोत्पादक हैं। खजुराहो में इस यक्ष की अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनका आकार-प्रकार प्रायः ऐसा ही है। पार्श्व : बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के यक्ष पार्श्व,' का अंकन देवगढ़ में बहुत हुआ है। उसकी कुछ मूर्तियाँ मन्दिर संख्या 12, 13, 15 और 23 में देखी जा सकती हैं। जैन मूर्ति-शास्त्र के ग्रन्थों में इसका नामान्तर गोमेध भी प्राप्त होता है। धरणेन्द्र : तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के यक्ष धरण या धरणेन्द्र का आलेखन भी यहाँ प्रचुर मात्रा में हुआ है। इसकी मूर्तियाँ मं. सं. 24, 28 और अनेक स्तम्भों के अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से (पद्मावती के साथ) शताधिक निर्मित हुईं। पद्मावती की गोद में दिखाये गये बालक के अतिरिक्त, कभी-कभी इसकी गोद में भी एक बालक निदर्शित किया गया है। कभी-कभी इसके मस्तक पर फणावलि 1. दे.-चित्र सं. 591 2. (अ) श्यामस्त्रिवक्रो द्रुघणं कुठारं दण्डं फलं वज्रदरौ च बिभ्रत्। गोमेदयक्षः क्षितशङ्खलक्ष्मा पूजां नृवाहोऽहंतु पुष्पयानः ॥ -पं. आशाधर, प्र.सा., 3-1501 (ब) घनं कुठारं च बिभर्ति दण्डं सब्यैः फलैर्वज्रवरौ च योऽन्यैः । हस्तैस्तमाराधितनेमिनाथं गोमेधयक्षं प्रयजामि दक्षम् ॥ -नेमिचन्द्रदेव : प्र. ति., पृ. 337-38 । (स) पार्यो धनुर्बाणमृण्डि मुद्गरश्च फलं वरः। सर्गरूपः श्यामवर्णः कर्तव्यः शान्तिमिच्छता ॥ -भुवनदेवाचार्य : अपरा., पृ. 5701 3. प्रतिष्ठासारोद्धार (3-150) तथा प्रतिष्ठातिलक (पृ. 337-38) पर । 4. धरण या धरणेन्द्र का लक्षण इस प्रकार प्राप्त होता है : (अ) ऊर्ध्वद्विहस्तधृतवासुकिरुद्भटाधः सव्यान्यपाणिफलपाशवरप्रणन्ता। श्रीनागराजककुदं धरणो भ्रनीलः कूर्मश्रितो भजतु वासुकिमोलिरिज्याम् ॥ -पं. आशाधर : प्र.सा., 3-151 । (ब) सव्येतराभ्यामुपरिस्थिताभ्यां यो वासुकीपाशवरो पराभ्याम् ॥ धत्ते तमेनं फणिमोलिचूलं पार्श्वेशयक्ष धरणं धिनोमि ॥ -नेमिचन्द्रदेव : प्र. ति., पृ. 338 । 5. देखिए-चित्र सं. 107 से 110 तक। 6. दे.-म.सं. 24 में जड़ी मूर्तियाँ तथा चित्र सं. 107 से 110 तक। मूर्तिकला :: 149 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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