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________________ ने मूर्तियों के निर्माण में आर्थिक सहयोग दिया था। यह महासामन्त किस शासक का था, इसके बारे में कुछ निश्चित नहीं है । इसके पश्चात् ही प्रत्येक शताब्दी के अनेक अभिलेख प्राप्त हुए हैं। उनसे प्रमाणित होता है कि निर्माण का यह कार्य विक्रम की 19वीं शती तक चलता रहा। यही कारण है कि यहाँ एक ओर मन्दिर के प्रारम्भिक रूप का दर्शन होता है तो दूसरी ओर उत्तर- मुगलकाल की कला भी दृष्टिगत होती है । स्थापत्य के निर्माण की प्रक्रिया अविच्छिन्न रूप से इतने दीर्घकाल तक भारत के गिने-चुने स्थानों में ही मिलती है । ( 3 ) शैलीगत विशेषताएँ और अलंकरण अग्निपुराण' में 45 मन्दिरों की एक सूची दी गयी है, जिसमें चतुष्कोण, अष्टकोण, षोडशभद्र और पूर्णभद्र मन्दिरों के भी नाम हैं । बृहत्संहिता में मन्दिरों के 20 भेद वर्णित हैं। उन्हीं में चतुष्कोण, अष्टकोण, षोडशभद्र एवं सर्वतोभद्र भी परिगणित हैं । देवगढ़ में इनमें से मं. सं. 15 षोडशभद्र और मं. सं. 28 पूर्णभद्र हैं । शेष मन्दिर चतुष्कोण हैं, जिनमें से कुछ समचतुष्कोण नहीं हैं । अष्टकोण मन्दिर यहाँ उपलब्ध नहीं हुआ है । अग्निपुराण में उक्त उल्लेख के तुरन्त पश्चात् लिखा है कि ये नाम नागर- प्रासादों के भी हैं और लाटप्रासादों के भी । इस दृष्टि से देवगढ़ के सभी मन्दिर नागर- प्रासादों के अन्तर्गत रखे जाएँगे । समरांगण सूत्रधार के 63वें अध्याय में 20 प्रकार के मन्दिर परिगणित हुए हैं और उन्हें द्राविड़ प्रासादों (अध्याय 61-62 ) तथा वाराट - प्रासादों (अध्याय 64 ) से पृथक् निर्दिष्ट किया गया है। इन उल्लेखों के आधार पर देवगढ़ के सभी मन्दिर 'नागर शैली' के अन्तर्गत आते हैं। केवल मं. सं. 12 में प्रदक्षिणा-पथ शेष है । इसलिए उसे 'सन्धार-प्रासाद' कहेंगे, और शेष को 'निरन्धार' । इसी प्रकार उक्त मन्दिर में गर्भगृह, प्रदक्षिणापथ, अन्तराल, महामण्डप और अर्धमण्डप की रचना हुई है, अतः उसे पंचायतन शैली का मानेंगे। शेष में से कुछ गर्भगृह, महामण्डप और अर्धमण्डप, कुछ में गर्भगृह और मण्डप तथा कुछ में केवल गर्भगृह ही है । अतः ये सब पंचायतन शैली के अन्तर्गत नहीं आ सकेंगे। शास्त्रों 1. दे. मं. सं. 12 के गर्भगृह में दायीं ओर भित्ति-स्तम्भ पर निर्मित देवकुलिका पर उत्कीर्ण अभिलेख । और भी देखिए एच हारग्रीव्ज ए. पी. आर.-1916, पृ. 5 तथा परिशिष्ट 'अ' । 2. ( अ ) महर्षि वेदव्यास, ( आचार्य बलदेव उपाध्याय सम्पादित), वाराणसी, 1966, अध्याय 104, श्लोक 13-20। (ब) गरुड़पुराण में भी प्रायः यही क्रम द्रष्टव्य है । दे. - गरुडपुराण, डॉ. रामशंकर भट्टाचार्य सम्पादित (वाराणसी, 1964), अध्याय 17, पद्य 19-311 3. वराहमिहिर : ( बंगलौर, 1947), अध्याय 56, श्लोक 17-181 4. गायकवाड़ ओरियंटल सीरीज़, बड़ौदा से 1994, 1995 में दी जिल्दों में प्रकाशित । 100 :: देवगढ़ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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