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________________ से देखा गया और जहाँ कहीं कोई विशेष तथ्य हमारे मत से भिन्न किन्तु उल्लेखनीय लगा, उसका यथोचित समावेश इस प्रबन्ध में कर लिया गया है। यह संकेत अप्रासंगिक न होगा कि डॉ. ब्रून ने देवगढ़ की जिन-प्रतिमाओं, सभी नहीं, का अध्ययन एक ऐसी शैली में किया है जो बहुत प्रचलित नहीं है, साथ ही अनेक स्थानों पर उनके निष्कर्ष यथाशास्त्र और निर्विवाद भी नहीं बन सके हैं। पर इन सबका सन्दर्भ हमने अपने प्रबन्ध में न देना ही ठीक समझा। इतना अवश्य है कि इस प्रबन्ध के लिखे जाते समय तक डॉ. ब्रून के जो लेख देवगढ़ आदि पर प्रकाशित हुए उनका यथास्थान सन्दर्भ दिया गया है। भारतीय ज्ञानपीठ-जैसी प्रतिष्ठित संस्था से इस ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है। इस संस्था के संस्थापक मान्य साहू शान्तिप्रसाद जैन और अध्यक्षा श्रीमती रमा जैन की दृष्टि इस ओर गयी और उन्होंने इसका प्रकाशन स्वीकार किया। वास्तव में साहू-दम्पती ने अन्य क्षेत्रों की भाँति पुरातत्त्व के क्षेत्र में भी स्थायी महत्त्व के कार्य किये हैं। अनेक स्थानों पर संग्रहालयों का निर्माण, प्राचीन मन्दिरों का विधिवत् जीर्णोद्धार और उनके लिए सम्पर्क-मार्ग आदि का निर्माण-जैसे कार्यों के अतिरिक्त, इस उपेक्षित विषय पर शोध-कार्य को प्रोत्साहन और उसके प्रकाशन में इस दम्पती का सक्रिय सहयोग ऐसा है जिसका उल्लेख भारतीय संस्कृति के इतिहास में अवश्य होगा। भारतीय ज्ञानपीठ के मन्त्री श्री लक्ष्मीचन्द्रजी जैन की तत्परता और प्रेरणा से ही यह ग्रन्थ इतने सुन्दर रूप में प्रकाशित हो रहा है। इस सबके लिए मान्य साहू-दम्पती और श्री लक्ष्मीचन्द्रजी जैन के प्रति हार्दिक धन्यवाद व्यक्त करता हूँ। यदि विद्वानों की दृष्टि में इस प्रबन्ध की सामग्री भारतीय कला, स्थापत्य और संस्कृति के अध्ययन के क्षेत्र में उपयोगी और महत्त्वपूर्ण समझी गयी तो मैं अपने प्रयत्नों को सार्थक समयूँगा। भागचन्द्र जैन महावीर जयन्ती 24 अप्रैल, 1975 आठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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