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________________ प्रथम परिच्छेद निश्चित होकर रति-सुख आदि भोग भोगता है ॥१३।। दोनों अपनी स्त्रियों में विषयासक्त हैं । हे भाई ! सुख और दुःख कृतकर्मों से होते हैं ॥१४॥ जिसकी निश्चल मति तपश्चरण में होतो है ( वह) स्वर्गलोक की देवसम्पदा को भोगता है ।।१५।। इसके पश्चात् मनुष्य पर्याय पाकर तप करता है और कृत-कर्मों को नाश कर शिवपद पाता है ॥१६।।। घत्ता-एक परिश्रम करके ( जिसने ) अति पुण्य किया है वह घोड़े, हाथी, रथ, पालकी वाहनों पर चढ़कर पृथिवी पर क्रीड़ा करता है । योद्धा ध्वजा धारण करके विविध भक्ति के साथ उसके आगे दौड़ते हैं ।।१३।। [१-१४ ] धण्णंकर-पुण्णंकर का जीव-दशा और मनुष्यगति के दुःखों के सम्बन्ध में चिन्तन जीव यदि किसी प्रकार श्रावक-कूल में जन्म प्राप्त कर लेता है ( तो वह ) जिनेन्द्र के धर्म को नहीं पालता है ।।१॥ वह मूर्ख जैसे-जैसे संसारभ्रमण करते हए दुःख पाता है वैसे-वैसे उसे पछताना पड़ता है ।।२।। हे भाई ! पीछे पछताने से क्या लाभ ? जिससे उसमें फँसना न पड़े वह (कार्य) तु आज हो कर ॥३।। पानी बाहर निकलने के पहले पार बाँधो या बाँध की रक्षा करो। सर्प निकल जाने पर अंधा पुरुष ही लकीर पीटता है ॥४॥ जिन सुखों के पश्चात् दुःख होता है उन सुखों को ज्यों ही कोई हृदय में धारण करता है, वे सुख अति मिष्ट आहार के पश्चात् जीमते ही तत्काल होनेवाले वमन के समान दिखाई देते हैं ।।५-६॥ संसार में जीव को सुख मधु की एक बूंद के बराबर और दुःख मेरु पर्वत के बराबर जानो ।।७।। हे भाई ! आपने देव, मनुष्य और तिर्यंच गतियों में जो दुःख सहे हैं उन्हें सम्हालो ।।८।। ईर्षा, विषाद, माया, क्रोध और मान ( आदि के कारण ) देवों के विमान से च्यत ( होने के सम्बन्ध में ) चिन्तन करो ॥९॥ सप्त धातुओं से निर्मित हुआ हृदय भी फूट जाता है। ( उसके ) सैकड़ों टुकड़े हो जाते हैं ।।१०॥ छह मास से च्यत होने की चिन्ता होने लगती है। उस समय के दुःखों को मैं कहने में समर्थ नहीं हूँ अथवा कह नहीं सकता हूँ।११।। जो सेवा करती हुई पंक्तिबद्ध सेविकाओं के समान रहती हैं वे देवांगनाएँ एक-एक कर दूर जाते हुए विलीन हो जाती हैं ।।१२॥ मनुष्य पर्याय में क्षय, खाँसी और श्वांस रोग तथा माता-पिता, पुत्र और बान्धवों का वियोग है ।।१३।। बध-बन्धन, ताड़न, असि-प्रहार, दरिद्रता और तिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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