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________________ ७२ अमरसेणचरिउ णउ लिहि अट्ठारह मुणिउ भेउ । उ मुणउं सदु सुह-असुह भेउ ॥१४॥ वीलंतहो महुपरि खलइ वाय । ललिग्रक्खरु जंपिरु साणुराय ॥१५॥ किउ रयउ सत्थु इत्थु जि महत्थु । महु संसा परिवड्ढइ हियत्थु ॥१६॥ कलिकाल-मज्झि आवइ दुसज्झि । जण दवियड्ढह दालिद्ददशि ॥१७॥ मिच्छत्तलित्त दुव्वसणसत्त । धम्मेण चत्त गयपाणमत्त ॥१८॥ ए रिसजणोह घरि घरि अमेह । पयर्डति वि अवगुण वि गतणेह ॥१९॥ दीसंति दुरासाय विविह भेय । हंढहिं चउगइ-जिणमइर हेय ॥२०॥ सोयारें वज्जिउ, जिणु-जय पुज्जिउ, दोसुज्झिउ सम्मई णि रहु । सो विवणम्मण थक्कउ, गणहर मुक्कउ, किं पुणु अम्हारि सुहु णई ॥१८॥ [ १-९] जइ तुच्छबुद्धि कियकम्ममहु । धिट्टत्ते पयडउ सुकह इहु ॥१॥ आयण्णहु भवियण थिरभणेण । संकप्पु-वियप्पु वि मुइ खणेण ॥२॥ इह जंवूदीवें भरहखित्तु । रसखंडहमंडिउ वर पवित्तु ॥३॥ तहं मगहदेसु सोहइ वरिठ्ठ । तह मज्झि वसइ राइगिहु मणि? ॥४॥ धणकण समिद्ध वुहयणहं जुत्तु । णं सुरखगिदपुरु आइ पत्तु ॥५॥ णिवसहिं चउवग्गइ अरुहभत्त । जिणु पुज्ज है राहि वि अचलचित्त ॥६॥ तहं राणउं सेणिउं पयहिपालु । सुहि भुंजइ णिव सिरि अरिभयालु ॥७॥ तहु राणी चेलण-रूवखाणि । जिणसासणभत्तिय अमियवाणि ॥८॥ परसप्पर रज्जु करत सुहिं । मण इंच्छिउ रइसुहु करहिं दिहिं ॥९॥ तावहि विपुलिंद गिरिंद सिहरि । अइसइमंडिउ जहु महइहरि ॥१०॥ दसअट्ठदोसरहियउ जिणेंदु । पडिहार-अट्ठ संजुउ अणेंदु ॥११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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