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________________ प्रथम परिच्छेद ७१ यदि प्राप्त कर भी लेता है तो तत्त्व नहीं जानता । विफल होकर वह मनुयता को हार जाता है || ११|| समुद्र में गिरे हुए रत्नों के समान श्रावक- कुल में जन्म दुर्लभ है । महान् पुण्य से मुझे यह सत्कार्य प्राप्त हुआ है ||१२|| हे पंडित ! मुझे श्री अमरसेन और वइरसेन का चरित सूत्ररूप में शीघ्र कहो || १३ || वे श्रवण ( कर्ण ) धन्य हैं जो चित्त स्थिर करके जिनवाणी सुनते हैं । इस विषय में अपने हृदय में कोई सन्देह मत करो || १४ || घत्ता - इस प्रकार चौधरी के वचन सुनकर पंडित माणिक्कराज ने प्रसन्नमुख से हर्षित होकर सैकड़ों प्रकार के सुखों को देनेवाले अपने काव्य रूपी रसायन को मन देकर आरम्भ कियो ॥ १-७॥ [ १-८ ] दुर्जन - स्वभाव - वर्शन, कवि का लाघव प्रदर्शन, कलिकालस्थिति तथा ग्रन्थ-प्रणयन- निश्चय काम, क्रोध, मान और लोभ में आसक्त दुर्जन पुरुषों से दूर निवास करना अच्छा होता है ॥ ॥ दुर्जन और सर्प स्वभाव से एक हैं । छिद्र देखकर सर्प जैसे हितकारी दूध को त्याग देता है इसी प्रकार दुर्जन हितैषी प्रजा का भी साथ नहीं देता ( त्याग देता है ) ||२|| दुर्जन सार वस्तु का त्याग कर देनेवाली चलनी और लघु आघात से टूट जानेवाले काँच के समान होता है । वह उत्तम पात्रों के साथ दिखाई नहीं देता ॥ ३ ॥ पात्र जानते । विषयों में आसक्त रहते हैं और और अपात्रों का वे भेद नहीं धन को मान्यता देते हैं || ४ || यदि दुर्जन की माता सुजन होती है तो वह ऐसे मनुष्य को गर्व पूर्वक त्याग देती है ||५|| दुर्जन विषय- कषायों में मग्न रहता है । अच्छा हुआ तो फिर काम में उन्मत्त रहता है ||६|| जो भव्य जन शीलगुणवान् हैं, विषय-कषायों के राग को वे त्याग देते हैं ||७|| जो शोकप्रद इन्द्रिय-दमन करता है, दस धर्म और रत्नत्रय से अलंकृत रहता है || ८|| वह भव्य पुरुष निधियाँ पाकर तीन खण्ड पृथिवी का पालन करता है और अनिवार्य रूप से दान देता है || ९ || ऐसे भव्य जन मुझ पर दया करो । ( मेरी ) कर्म प्रकृतियों को चूरकर ( मुझे ) मुक्त करो ॥१०॥ यह कथा दुर्लङ्घ्य है, मेरी तुच्छबुद्धि है, मैं गाथा और दुबई छन्द नहीं जानता हूँ || ११ || जिनमार्ग नहीं जाना है, मिथ्यात्व में रति है, चौपाई, दोहा और पद्धड़िया छन्द तथा गति नहीं जानता हूँ ||१२|| हे महावीर स्वामी ! व्याकरण और तर्क हृदय में नहीं हैं । कथा न देखी है और न किसी स्थान पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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