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अमरसेनचरिउ रह गया। सम्भवतः इसीलिए ये वैश्य न कहे जाकर वणिक संज्ञा से विश्रुत हुए।
जातियाँ : कवि माणिक्कराज ने प्रस्तुत ग्रन्थ में ग्रन्थ की रचना करानेवाले चौधरी देवराज को 'अइरवाल कुल कमलसूर' कहा है तथा यह भी बताया है कि वे जिनेन्द्र पार्श्वनाथ के भक्त थे ( १।६।१-८)। स उल्लेख से यह स्पष्ट है कि जैनधर्म के उपासकों की विभिन्न जातियाँ थीं और उनमें अग्रवाल जिसे इस ग्रन्थ में अइरवाल कहा गया है, जैनधर्म के उपासकों का यह एक श्री एवं धी सम्पन्न अन्वय रहा है। शोध-प्रबन्ध लिखते समय उन्नीस अन्वयों के लेखक को जैन-प्रतिमा लेख प्राप्त हुए हैं। जिनमें अग्रवाल अन्वय का एक भी मूर्ति लेख नहीं है। यह विषय विचारणीय एवं अन्वेषणीय है।
महाजन : कवि ने व्यापारियों के नामोल्लेखों के पश्चात् रुहियास (रोहतक ) नगर के निवासियों में एक ऐसे वर्ग का उल्लेख भी किया है जिसे महाजन संज्ञा दी गयो है तथा जिन्हें शुद्ध बोध, पूजा और दान से विभषित बताया गया है ( १।३।९)। इस उल्लेख से महाजन कहे जानेवाले लोग जैनधर्मी ज्ञात होते हैं। व्यापारी होने के कारण सम्भवतः वे महाजन कहे जाने लगे।।
गोवाल : प्रस्तुत ग्रन्थ में ग्वाल ( अहीर ) के लिए 'गोवाल' शब्द व्यवहृत हुआ है । कवि ने इन्हें हीन जाति का कहा है तथा मरकर इस जाति के लोगों को स्वर्ग की प्राप्ति होने का भी निर्देश किया है (१।११।३ )।
- इस उल्लेख से दो तथ्य स्पष्ट होते हैं। प्रथम यह कि हीन जाति का व्यक्ति भी पुरुषार्थ से स्वर्ग प्राप्त कर सकता है। दूसरा यह कि इस जाति की गणना चारों वर्गों में शूद्र वर्ण में की गयी ज्ञात होती है। आचार्य जिनसेन ने शद्र दो प्रकार के बताये हैं-कारू और अकारू। उन्होंने कारू के भी दो भेद किये हैं-स्पृश्य और अस्पृश्य ।२ गोवाल स्पृश्य ज्ञात होते हैं। सम्भवतः आजीविका हेतु गायें चराना इनका प्रमुख कार्य था । ग्रामों में इस जाति के लोग आज भी गायें चराते हैं।
कोडवार : बुन्देलखण्ड भूमि में इस जाति को कुटवार कहते हैं
१. पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ : खण्ड २, पृ० ३३ । २. महापुराण : १६।१८५-१८६ ।
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