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________________ प्रस्तावना २५ से भ्रष्ट मुनि ओर अपने मार्ग से च्युत श्रावक भी सिद्ध हो जाते हैं किन्तु सम्यक्त्व के बिना कोई भी सिद्ध नहीं हो पाता ( १।१८।३-४ ) । कवि की मान्यता है कि वे देव जो संसार में रम रहे हैं उनकी सेवा मुक्ति का कारण नहीं हो सकती। जो परिग्रह के कारण स्वयं डूब रहे हैं वे औरों को कैसे तार सकते हैं ( १।१८।८-९)। पर चिन्तन से अनन्त संसार और आत्म-चिन्तन से परमपद प्राप्त होता है अतः परनिन्दा न करे और न पर का गुप्त भेद प्रकट करे ( १।१८।१२-१३ ) । श्रावक को जुआ आदि सातों व्यसन त्याज्य हैं। श्रावक को कवि ने बाईस अभक्ष्य और बत्तोस अनन्तकाय पदार्थों को तथा मद्य, मांस, मधु, मक्खन, गाजर, मूलो, कलोट, राख, सूरण, पिंडाल, वेंगन, रात्रि-भोजन, घोल, बड़ा, संधान, अथाना और द्विदल को असेव्य कहा है। अनछने पानी का उपयोग भी वर्जनीय बताया है (१।१९।२-९)। इसके पश्चात् कवि ने पञ्चाणुब्रतों का निरूपण किया है । अहिंसाणुव्रत में मन वचन और काय से त्रस और स्थावर जीवों के ऊपर बच्चों के समान दया करते हुए सूक्ष्म और स्थूल सभी जीवों की रक्षा करना अहिंसाणुव्रत है । कवि ने सत्याणुव्रत में सत्य वचन के आचरण पर जोर दिया है। अचीर्याणुव्रत के अन्तर्गत पराये धन को लेने-देने और दूसरों को ठगने तथा कम ज्यादह माँपने-तौलने का निषेध किया गया है । ऐसा व्रती पराये धन को धूलि और तृण के समान तुच्छ मानता है। ब्रह्मचर्याणुव्रत में पर स्त्रियों को माता समझने पर जोर दिया गया है (१।१९।१४-१५, ५।७।५-१७)। धन-धान्य क्षेत्र आदि का प्रमाण परिग्रहपरमाणुव्रत में आवश्यक माना गया है ( १११९।१५)। पञ्चाणवतों के पश्चात् कवि ने गणव्रतों का उल्लेख किया है। दिग्त्रत में दिशाओं और विदिशाओं में जाने को तथा देशत्रत में ग्राम, नगर आदि तक के गमनागमन की मर्यादा रखने तथा अनर्थदण्डवत में उसके पालनार्थ तृष्णा-परित्याग कर मन एकाग्र करने पर जोर दिया गया है (५.८।५-८)। श्रावक धर्म में कवि ने चार शिक्षाव्रतों को भी सम्मिलित किया है । उन्होंने सामाधिक के लिए एकचित्त होना तथा सब जीवों पर मैत्रीभाव रखना आवश्यक माना है। इसे त्रिकाल किये जाने पर जोर दिया गया है। प्रोषधोपवास अष्टमी और चतुर्दशी तिथियों में किया जाता है। इससे फैलते हुए मन का संकोच होता है। भोगोपभोगपरिमाणव्रत में भोग और उपभोग को वस्तु संख्या निश्चित रखी जाती है और अतिथिसंविभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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