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अमरसेनचरिउ आचार्यों ने उल्लेख किया है। इसी प्रकार पं० माणिक्कराज ने अपने इस ग्रन्थ में पूर्वकालीन समस्त परम्पराओं का समावेश किया है ।
पुण्य-पाप : धण्णंकर-पुण्णंकर दोनों भाई परम्पर में वार्तालाप करते बताये गये हैं । उनके वार्तालाप के माध्यम से कवि ने पूण्य-पाप सम्बन्धी अपना चिन्तन प्रस्तुत करते हुए उनमें महान् अन्तर बताया है। उन्होंने पुण्य को सुख का और पाप को दुःख का हेतु माना है
इह पुन्नपाव अंतरु वरिठ्ठ । एयइ सुहि एयइ सहहि कछु ।। एयइ वि रंक भूवइ वि एक्कु ।
भोयई भुजहिं रइसुह णिसंक ।।१।१३।१२-१३ कवि के अनुसार सांसारिक वैभव, धन-सम्पदा सब पुण्य के योग से प्राप्त होते हैं ( १।१९।१७)। गया हुआ द्रव्य पुनः प्राप्त हो जाता है। नष्ट होता हुआ वंश चल जाता है। भव-सागर से पार होने में भी पुण्य सहाई होता है । सुख की प्राप्ति बिना पुण्य-योग के नही होती और दुःख, पाप-क्रियाओं से ही प्राप्त होता है ( १।२२।२१-२३)।
श्रावक-कुल : धणंकर और पुण्णंकर की बातचीत के माध्यम से कहा गया है कि श्रावक कूल दुर्लभ है। बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है। चिन्तामणि रत्न पाकर जैसे कोई समुद्र में फेंक दे तो वह उसे पुनः प्राप्त नहीं कर पाता ऐसे ही मनुष्य-पर्याय और मनुष्य पर्याय पाकर श्रावक कुल की उपलब्धि बार-बार नहीं होता। इस सन्दर्भ में कहा गया है
रे जोव म जाणिसि वलि लहेसु । मणुयत्तणि सावयकुलिपवेसु ।। चिंतामणि लद्ध समुद्दमज्झि । पडियउ वलि लभइ केम वुज्झि ।।
-१।१७१५-१६ मनुष्य का कर्तव्य है कि वह दुर्लभ नर भव पाकर धर्म करे । जो ऐसा नहीं करता कवि को दृष्टि में उसका जन्म निरर्थक है । उन्होंने लिखा है
दुल्लहु णरभउ पाविवि सुधम्मु ।
जो ण करइ तहु इह मणु वजम्मु ।।५।१५।१८ श्रावक कुल मिलने पर जैनधर्म का पालन करे। जो जीव जैनधर्म का पालन नहीं करता वह भव-भ्रमण करते हए जैसे-जैसे दुःख पाता है वैसेवैसे पश्चाताप करता है किन्तु पीछे पश्चाताप करने से कोई लाभ नहीं होता । पानो निकलने के पूर्व बाँध बाँध लेने में लाभ है । साँप निकल
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