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सप्तम परिच्छेद
२७१ इस प्रकार चारों वर्ग की सुन्दर कथारूपी अमृतरस से परिपूर्ण, श्रो पण्डित माणिक्क द्वारा साधु महणा के चौधरी देवराज नामवाले पुत्र के लिए रचे गये इस महाराज श्री अमरसेन चरित में अमरसेन - वइरसेन की स्वर्ग प्राप्ति का वर्णन करनेवाला यह सातवाँ परिच्छेद पूर्ण हुआ ॥ छ ॥
( जीवों को ) ज्ञान-दान से ज्ञानवान्, अभयदान से निर्भयत्व, अन्नदान से नित्य सुख और औषधिदान से व्याधि-विहीनता प्राप्त होती है ।
पुस्तक का आत्मनिवेदन है कि तैल, जल और शिथिल बन्धन से मेरी रक्षा करें। मुझे मूर्ख के हाथ में नहीं देना चाहिए ।
॥ शुभं भवतु ॥
हिन्दी अनुवाद
श्री राजा विक्रमादित्य के ( १५७६ ) वर्ष व्यतीत हो जाने पर संवत् १५७७ वर्ष में कार्तिक वदी पंचमी रविवार के दिन कुरुजांगल देश के सोनीपत शुभ स्थान में काष्ठासंघ - माथुरान्वय में पुष्कर - गण में ( हुए ) भट्टारक श्री गुणकीत्तिदेव के पट्टधर भट्टारक श्री यशकीत्तिदेव तथा इनके पट्टधर श्री मलकीत्तिदेव के पट्ट पर [विराजमान ] हुए भट्टारक गुणभद्रसूरिदेव की आम्नाय में अग्रवाल अन्वय के गोयल गोत्र में सोनीपत के निवासी ने जिनेन्द्र की इन्द्रध्वज पूजा की । शाह छल्हू और उसकी शील रूपी जल से युक्त नदी तुल्य साध्वी करमचंदही के विद्वान् पुत्र वाढू ने चार प्रकार का दान किया। उसके द्वारा ज्ञानावरणी कर्म के क्षय हेतु यह अमरसेन चरित लिखाया ( था ) | यह कार्य शुभकारी हो, मंगल देवे ॥ छ ॥
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रक्षाबन्धन पर्व - दिवसे समाप्तमिदं कार्यं ६-८-१९९० सोमवार
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