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प्रस्तावना राजा देवसेन और रानी देवश्री ने इन दोनों मुनियों की वन्दना की तथा उनसे सम्यक्त्व के कारण-स्वरूप जिनेन्द्र-पूजा का माहात्म्य जाना । कुसुमावलि और कुसुमलता की जिनेन्द्र अर्चा का फल समझा। प्रीतंकर के द्रष्टान्त द्वारा जिन-पूजा की अनुमोदना का फल ज्ञात किया ।
[पञ्चम सन्धि] मुनि अमरसेन ने राजा देवसेन को जिन-पूजा का माहात्म्य समझाने के लिए राजगृही के मेंढक की पूजा सम्बन्धी कथा सुनाई । उन्होंने बताया कि राजगह नगर में नागदत्त नामक एक सेठ था। उसकी सेठानी का नाम भयदत्ता था। नागदत्त आर्तध्यान से मरकर अपने घर की समीपवर्ती वापी में मेंढक हुआ । भयदत्ता जब पानी भरने जाती, वह मेंढक पूर्व स्नेह के कारण उसके आगे-आगे उछलता तथा उसका आँचल पकड़ता था। एक दिन भयदत्ता ने सुव्रत मुनि की वन्दना की। उनसे उसे मेंढक पूर्व पर्याय का पति ज्ञात हुआ। उसने स्नेह वश मेंढक को वहाँ से लाकर एक गहरी बावली में रखा तथा उसे जिनेन्द्र-भाषित धर्म समझाया।
विपुलाचल पर्वत पर तीर्थंकर महावीर का समवशरण आने पर राजा श्रेणिक अपने नगरवासियों के साथ उनको वन्दना के लिए गये थे । मँह में कमल-पुष्प की पाँखुड़ी दबाकर उक्त मेंढक भी पूजा के भाव से राजा श्रेणिक के साथ जा रहा था। भीड़ के कारण अपनी सुरक्षा की दृष्टि से वह राजा श्रेणिक के हाथी के नीचे चल रहा था । अचानक वह हाथी के पैर के नीचे आ गया और दबकर मर गया । पूजा के भाव रहने के फलस्वरूप वह मरकर देव हुआ।
__ मुनि अमरसेन ने राजा देवसेन को कुसुमांजलि व्रत का माहात्म्य भी समझाया था। उन्होंने उन्हें बताया था कि इसी व्रत की साधना से मदनमंजूपा स्वर्ग गयी और राजा रत्नशेखर तथा सेनापति घनवाहन मोक्ष गये। उन्होंने यह कथा बताते हुए कहा कि रत्नशेखर-राजा वज्रसेन और रानी जयावती के पुत्र थे। विद्याधर घनवाहन उनका मित्र था। दोनों ने अढाई द्वीप के जिनालयों की वन्दना की था । इस यात्रा में रत्तशेखर ने सिद्धकूट जिनालय में मदनमंजूषा को देखा था। दोनों परस्पर पर मुग्ध थे। मदनमंजूषा के कहने पर उसके पिता ने उसका विवाह रत्नशेखर के साथ कर दिया था ।
घनवाहन के चारण मुनि अमितगति से रत्नशेखर और मदनमंजूषा की प्रीति का कारण पूछने पर मुनि ने उसे बताया था कि पूर्वभव में
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