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प्रस्तावना
इधर भोजन सामग्री लाने के लिए जैसे ही वहरसेन ने कंचनपुर में प्रवेश किया कि उसकी एक वेश्या से भेंट हई। वह उसके घर रहने लगा
और अपने कंचनपुर में होने का पता अपने भाई को नहीं लगने दिया। वह भाई के आगे हीनता प्रकट नहीं करना चाहता था । वेश्या ने भी इसको आय का स्रोत ज्ञात कर इसे अपने घर से निकाल दिया। वह वेश्या से अपना गुप्त भेद प्रकट करने पर बहत पछताया।
[तृतीय सन्धि] - इसके पश्चात् वइरसेन नगर के बाहर स्थित एक मन्दिर में गया। दैवयोग से किसी योगी को मारकर उसके द्वारा सिद्ध की गयी विद्या स्वरूप कथरी, लाठी और पाँवड़ी तीन वस्तुएँ चुराकर चार चोर उसी मन्दिर में आये। वस्तुएं तोन और चोरों की संख्या चार होने से चोर परस्पर में झगड़े। वइरसेन ने उन्हें वस्तुओं के बटवारे का आश्वासन दिया। चोरों ने आश्वस्त होकर वस्तुओं का माहात्म्य बताते हुए तीनों वस्तुएँ वइरसेन को दी। ठगों को महाठग मिला। वइरसेन वस्तुएँ लेकर
और पाँवड़ी पहिनकर एकाएक आकाश में उड़ गया तथा कंचनपुर आ गया । चोर हाथ मलते रह गये और पश्चाताप करते हुए अपने-अपने घर चले गये।
वइरसेन कथरी झड़ाकर प्रतिदिन पाँच सौ रत्न प्राप्त करने लगा। पुनः उसके दिन पूर्ववत् आनन्दपूर्वक बीतने लगे। एक दिन वेश्या ने उसे देखा । कपट पूर्ण मीठी-मीठी बातें करके वह उसे फिर घर ले गयी। उसने वइरसेन से उसकी आकाशगामिनी पाँवड़ी को पाने के लिए कामदेव मन्दिर को यात्रा कराने का निवेदन किया । वइरसेन उसे समुद्र के बीच टापू पर बने कामदेव के मन्दिर ले गया। यहाँ वह जैसे ही मन्दिर के सौन्दर्यदर्शन में व्यस्त हुआ कि अवसर पाकर वेश्या उसकी पाँवड़ी लेकर कंचनपुर आ गयी।
वइरसेन अपने ठगे जाने से उदास हो गया। इसी बीच वहाँ एक विद्याधर आया और उसने इसे कंचनपुर पहुँचाने का आश्वासन दिया। वह तीन दिन बाद पुनः आने का वचन देकर चला गया। जाते समय उसने इसे मन्दिर के पीछे जाने को मना किया। यह नहीं माना । वहाँ गया और एक वृक्ष का इसने फूल सूंघा । फूल संघते ही वह गधा बन गया। विद्याधर ने आकर इसे नहीं पाया। इसके स्थान में उसे गधा दिखाई दिया। वह रहस्य समझ गया। उसने दूसरे वृक्ष का फूल.
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