SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना ११. परिचय दिया गया है । ग्रन्थ समाप्ति के पश्चात् प्रतिलिपि करानेवाले श्रावक की परिचयात्मक प्रशस्ति दी गयी है जिसमें प्रतिलिपि के समय और स्थान का उल्लेख किया गया है । ग्रन्थ का इतना परिचय देने के पश्चात् ग्रन्थ की संक्षिप्त विषय-वस्तु का अंकन करना भी आवश्यक प्रतीत होता है अतः वह इस प्रकार है राजा श्रेणिक के तीर्थंकर महावीर से यह पूछने पर कि जाति से हीन ग्वाल-बाल स्वर्ग कैसे गया ? इस प्रश्न के उत्तर में गौतम गणधर ने कहाउसका नाम धण्णंकर तथा उसके छोटे भाई का नाम पुण्णंकर था । दोनों भाई जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में ऋषभपुर नगर के सेठ अभयंकर के यहाँ कर्मचारी के रूप में रहते थे । एक दिन दोनों भाई परस्पर में पुण्य पाप के फलों पर विचार करते हुए सांसारिक क्षणभंगुरता का अनुभव करते हैं । इन्द्रिय-विषयों से हटकर आत्म-स्वरूप ध्याते हैं । वे सम्यक्त्व से प्रीति जोड़ते हैं और मिथ्यात्व तोड़ते हैं । सेठ अभयंकर इनके धार्मिक-स्नेह एवं तत्त्व- रुचि से प्रभावित होकर इन्हें स्नान कराकर और शुद्ध वस्त्र पहिनाकर जिन मन्दिर ले जाता है । सेठ इन्हें चढ़ाने को द्रव्य देता है किन्तु वे नहीं लेते । वे निज द्रव्य से ही जिनेन्द्र की पूजा करना चाहते हैं । उनकी मान्यता थी कि पूजा में जिसकी द्रव्य चढ़ाई जाती है पूजा का फल उसे ही प्राप्त होता है । अपनी मान्यता के अनुसार अर्थाभाव के कारण वे पूजा न कर सके। मुनि विश्वकोति ने इन्हें व्रत, उपवास आदि का उपदेश दिया । भोजन-सामग्री सामने आने पर इन्होंने मुनियों को आहार कराने के भाव किये । दैवयोग से चारंग मुनि वहाँ आये । दोनों भाइयों ने अपनी-अपनी भोजन सामग्री से मुनियों को आहार दिये। दोनों मुनि आहार लेकर आकाश मार्ग से विहार कर गये । [ प्रथम सन्धि ] इसके पश्चात् सेठ अभयंकरने धण्णंकर और पुण्णंकर दोनों भाइयों को भोजन करने के लिए कहा किन्तु उन्होंने भोजन नहीं किया । चारों प्रकार के आहार का त्याग करके नमस्कार मन्त्र जपते हुए समाधिमरण करके दोनों भाई सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुए । स्वर्ग से चय कर दोनों जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में कलिंग देश के दलवट्टण नगर के राजा सूरसेन और रानी विजयादेवी के पुत्र हुए। बड़े भाई का नाम अमरसेन और छोटे भाई का नाम वइरसेन रखा गया । राजा सूरसेन हस्तिनापुर के राजा देवसेन को बहुत चाहता था । वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy