________________
२०७
पंचम परिच्छेद
[५-१४] [ अमरसेन-वइरसेन कृत धार्मिक कार्य-वर्णन ] इस प्रकार दान का फल सुनकर स्वच्छ हृदय दोनों भाई अशुभ-हारी पात्रों को ( दान ) देते हैं ॥१॥ राजा अमरसेन और वइरसेन स्वच्छ/शुद्ध दोनों भाई जिनेन्द्र के प्रति दान में आगे ( रहते हैं ) ॥२॥ वे वर्ष भर पुर, पट्टन, द्वीप, नगर और ग्रामों में दान कराते हैं ॥३॥ वहाँ वे प्रतिदिन दुःखी पथिकों को छहों रस-सहित भोजन दिलाते हैं ।।४। स्थानस्थान पर प्राणियों का पालन करते हैं। पथिकों को पोसरे ( प्याऊ) देते हैं | खलवाते हैं ।।५।। धर्म के लिए, धर्म जानने समझने के लिए और जिनेन्द्र की पूजा के लिए जिन-विहार / मन्दिर तथा जिन-स्नपन के लिए बहुत कुछ, बावली तथा कमलों से आच्छादित सरोवर बनवाये ॥६-७॥ कहा भी है-पुत्र-शोक के समान शोक, इच्छा-हनन / निरोध के समान तप, दया के समान धर्म और दान के समान (अन्य ) निधि नहीं है ।।१।। वे पात्रों का चारों प्रकार के दान से और दीन-हीन पुरुषों का दया-दान से पोषण करते हैं ।।८।। जहाँ-जहाँ तीर्थंकरों ने जन्म लिया है, केवलज्ञान
और मोक्ष पाया है। अन्य वे स्थान जहाँ सिद्धों ने जन्म लिया है वहाँवहाँ इन दोनों भाइयों ने चैत्यालय बनवाये ।।९-१०।। स्थान-स्थान पर जिन प्रतिमाएँ बनवायीं और प्रतिष्ठा करा करके उन्हें चैत्यालयों में स्थापित किया ॥११॥ अपना द्रव्य व्यय करके जिनेन्द्र स्वामी के मन्दिर में विविध महोत्सव किये ॥१२॥ जहाँ-जहाँ चैत्यालय बनवाये वहाँ-वहाँ जिनयज्ञशालाओं की पति की | जिन-यज्ञशालाएँ बनवायीं ॥१३।। जिन स्वामी के सभी तीर्थों की वन्दना की और कृत्रिम, अकृत्रिम जिन-स्वामी की पूजा की ।।१४।। पर्व की तिथियों में प्रोषधोपवास करते हए चतुर्विध आहार से संन्यास लेते हैं ।।१५।। कायोत्सर्ग से ध्यान में रहते हैं। सूर्योदय होने पर स्नान करके जिनेन्द्र की पूजा करते हैं ।।१६।। सातवीं घड़ी में मुनि को (आहार ) देकर भोजन करते हैं और सज्जनों के मन तथा नेत्रों को आनन्दित करते हैं ।।१७।। वे दयालु धर्मध्यान में रहते हैं। सप्त-व्यसनों से नित्य दूर चलते हैं ।।१८।। अपना यश रूपी नगाड़ा तीनों लोक में बजवाया। वे पूर्वभव में किये के समान भव्य जनों को सब करते हैं | सुविधाएँ देते हैं ।।१९।। मन, वचन और काय तीनों को शुद्धि पूर्वक जिनेन्द्र की पजा और व्रतीसंघ को दान देते हैं ॥२०॥ अन्य जिन-मन्दिरों में तीनों प्रकार की शुद्धिपूर्वक मणि-मय जिन-प्रतिमाएँ स्थापित कराते हैं ॥२१॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org