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पंचम परिच्छेद
२०३ [५-१२] [ पूर्वभव में किये अमरसेन-वइरसेन के पात्र-दान का माहात्म्य-वर्णन ]
ऐसा सुनकर बड़ा भाई कहता है-मैं क्या करूँ ? निधि/द्रव्य-हीन उत्पन्न हुआ हूँ ॥१॥ हे ऋषि ! मुझ पापी के एक कौड़ी भी नहीं है । तीन लोक के स्वामी जिनेन्द्र की पूजा कैसे करूँ ?॥२॥ ऐसा कहकर मुनि के पास ( उसने ) गहरी साँस ली और चारों प्रकार के आहार के नियम( त्याग ) की घोषणा की ॥३।। मेघों का चुम्बन करनेवाले अपने शिखर कलश से युक्त जिनालय में दिन-रात रहकर दूसरे दिन वहीं स्नान करके उसके द्वारा जिनेन्द्र, जिन-श्रुत और जिन-गरु की पूजा की गयी ॥४-५।। पाँचों कौड़ियों से फूल लेकर जिनेन्द्र के चरणों में चढ़ाकर स्तुति की गयी ।।६।। इसके पश्चात् सेठ के साथ घर गये। उस समय सेठानी ने अति विनयपूर्वक मीठी बोली से कहकर कर्मचारियों को छहों रसों से (निर्मित) भोजन दिया /परोसा ॥७-८॥ सम्पूर्ण थाली लेकर और भली प्रकार बैठ कर दोनों भाई हृदय में विचारते हैं-पुण्योदय से यदि कोई यहाँ श्रेष्ठ मुनि-पात्र आता है (तो) उनके लिए हमारा भोजन हो (हम देवें)॥९-१०।। जिस समय वे दोनों भाई ऐसी भावना भाते हैं उसी समय चारण ऋद्धिधारी दो मनि आते हैं ।।११।। दोनों भाई मनियों को देखकर विनत सिर से उन्हें पड़गाह करके (कहते हैं-) हे मुनि ! यहाँ शुद्ध भोजन है, ठहरिये-ठहरिये ! (इस प्रकार पड़गाह करके ) दोनों भाई अपना आहार देते हैं। पारणा करके अक्षय दान देनेवाले चारण मुनि आकाशमार्ग से चले गये । कमचारियों से सेठ सन्तुष्ट हुआ ॥१२-१४॥ ( वह कहता है ) हे भव्य ! यहाँ चारण मुनियों को पड़गाह करके आप लोगों ने पुण्यार्जन किया है, तुम लोग सुगति-मोक्ष के पथिक हो ॥१५।। अब भोजन करो यहाँ और ( भी ) भोजन सामग्री है । ( वे भाई ) कहते हैं-बहुत तृप्ति प्राप्त हुई है ( हम ) भोजन नहीं करते ।।१६।। हम चारों प्रकार के आहार का त्याग करते हैं। हे सेठ ! दूसरे दिन शीघ्र भोजन करेंगे ।१७।। दान के प्रभाव से तुम दोनों मरकर सनत्कुमार स्वर्ग में महान् पद पाकर और सात सागर समय भोग भोगकर राजा के घर राजपूत्र के रूप में उत्पन्न हुए हो ॥१८-१९।। ____घत्ता-हे यतीश्वर ! त्रिभुवन के स्वामी ! कहिएगा कि हमारी सौतेली माता ने किस कारण से हमें वहाँ दोष लगाया ? और हमारा तिरस्कार हुआ ।।५-१२॥
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