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पंचम परिच्छेद
२०१ घत्ता-उन्हें जिन-मन्दिर के उस स्थान पर ले गया जो सुशोभित था । जहाँ चातुर्मास में मुनि विराजमान रहते हैं। इसके पश्चात् तोनों ने जिन-मन्दिर में आष्टाह्निक पर्व में उपवास किया ।।५-१०।।
[५-११]
[धण्णंकर-पुण्णंकर का पर पूजा द्रव्य न लेने पर मुनि कृत सम्बोधन ]
सेठ ( अभयंकर ) देव-शास्त्र और गुरु की पूजा के हेतु सुन्दरस्वच्छ पुष्पमाल लेकर आधे पुष्प कर्मचारी दोनों भाइयों को देता है किन्तु वे पर-द्रव्य ग्रहण नहीं करते ॥१-२॥ सेठ पूछता है क्यों नहीं लेते ? मेरा पौद्गलिक हृदय आश्चर्यचकित है। यह बात देह में डाभ के समान चुभ रही है ।।३।। वे भाई कहते हैं यदि हम फूल लेते हैं तो उससे सुखपूर्वक उत्पन्न पुण्य हमें प्राप्त नहीं होता है ।।४।। हे सेठ ! निश्चय ने हम (पर द्रव्य) ग्रहण नहीं करते--ऐसा वे मोठी वाणी से कहते हैं ।।५।। ऐसा सुनकर सेठ हर्षित चित्त से ( उन्हें ) श्रेष्ठ और यति के पास ले जाकर जिनेन्द्र और जैनधर्म पर चित्त लगाकर तथा गुरु के चरणों में पुनः-पुनः प्रणाम करके ! कहता है )॥६-७।। हे मुनिराज ! सुनिये ! स्वच्छ-हृदय ये दोनों भाई-हम इन्हें पूजा की द्रव्य देते हैं ( फिर भी) जिनेन्द्र को पूजा नहीं करते ।।८।। हे भव्य मुनिराज ! गर्व विहीन दोनों भाइयों से इसका कारण पूछिए ।।९।। ऐसा सुनकर मुनि अमृतोपम-वाणी से कहते हैं-हे कर्मचारी भाइयो ! नपति, सुरपति और फणिपति त्रैलोक्य वन्द्य जिनेन्द्र के चरणों की पूजा करते हैं, तुम क्यों नहीं करते ? ||१०-११॥ वह श्रावक के मन को परम प्रिय है । सुरेन्द्र, नरेन्द्र, फणीन्द्र सभी को मोक्ष-गमन के लिए सार-स्वरूप है ।।१२।। ऐसा सुनकर धण्णंकर और पूण्णंकर ने अन्य सुन्दर वचन कहे ।।१३।। हम अपनी द्रव्य से फूल लेकर जिनेन्द्र स्वामी की पूजा और स्तुति करते हैं ॥१४॥ मुनिराज कहते हैं-हे भव्य ( भाइयो ) यदि तुम्हारे पास कुछ द्रव्य है तो कहो ॥१५॥
घत्ता-एक कर्मचारी ने मीठे स्वर से कहा-हे यति ! मेरे पास पाँच कौड़ियाँ हैं । हे बुद्धिवन्त यति सुनिये-फूल अमूल्य हैं । कौड़ियों के मूल्य को छोड़ो, उससे क्या प्राप्त हो ( सकता ) है ।।५-११।।
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