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पंचम परिच्छेद
१९५ पत्ता-काम-विनाशक, व्रत-तप और संयम से उज्ज्वल अवस्थावाले, निर्ग्रन्थ, दिगम्बर, ऋद्धियों से आकाशगामी, तप-तेज से सूर्य के विजेता मुनियों के पास ( राजा ) बैठ जाता है ॥५-६।।
[५-७ ]
[ राजा को पंच-पाप-त्यागमय चारण-मुनि कृत धर्मोपदेश ]
राजा ने बार-बार नमस्कार करके ( कहा )-हे मुनिवर ! सुखकारी धर्म कहो | समझाओ ॥१॥ मुनि कहते हैं-सुनो ! लोक में सार स्वरूप दयालु जैनधर्म है ।।२।। भव्य जनों को गृहस्थ-धर्म इष्ट है, जो श्रावक के व्रत भली प्रकार पालता है (वह) शिव-सुख को देनेवाली शुभगति में गमन करनेवाला होता है । स्थावर और त्रस के भेद से ( जीव ) बहु कायिक हैं ।।३-४।। इन पर मन, वचन और काय पूर्वक बच्चों के समान हृदय से दया रखना धर्म है ।।।५।। प्रधान सत्य धर्म है । चारों प्रकार का दान शुभ-गुणों का स्थान है ।।६।। मुनियों को तप और श्रावकों को व्रत-शुभगति के सैकड़ों कारणों में एक अकेला पहला कारण है ।।७।। जो सूक्ष्म और स्थूल जीव बताये गये हैं, उनकी विभिन्न जातियाँ कही गई हैं।।८। जो उनके प्राणों का विनाश करता है वह नियम से नरकगति पाता है ।।९।। जो रक्षा करता है वह सब प्रकार से सखकारीरुचि के अनुसार श्रेष्ठ अनेक सिद्धियाँ पाता है ।।१०।। जो जन सत्य वचन अपने मन से आचरते हैं वे शाश्वत पद पाते हैं ।।११।। इसी प्रकार जो झूठ बोलता है वह मूक होता है और दुर्गति में फंसता है ॥१२।। झूठ बोलकर वह आगामी भव बिगाड़ता है, वह प्रतीति का पात्र नहीं होता और न शुभगति पाता है ।।१३।। पराये धन को देखकर ( मनुष्य ) गड्ढे में गिरा है ( अतः ) लेन देन में पर को मत ठगो ॥१४॥ जो बिना दिया पराया धन प्राप्त करता है, वह चोर होकर अपनी कुशलता को जलाता है ॥१५।। ( जो ) पराये धन को धूलि के समान मानता है वह नियम से ऊपर ( ऊर्ध्वलोक में ) स्थित होता है ।।१६।। चोरों को संगति नहीं करे, बाधाकारी झूठ को भी त्यागे ॥१७॥
घत्ता-परस्त्री-रमण करनेवाला दुर्गतिगामी और सुगति का निवारक तथा अपयश का घर होता है। प्रबल योद्धा रावण पर-स्त्री को मन में धारण करके नरक को प्राप्त हुआ यह लोगों में प्रकट है ॥५-७॥
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