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________________ १८० अमर सेणचरिउ तं णिसुणेविणु णरवइ कुद्धउ । णिय दलु मुवकउ वरि विरुद्ध उ ॥ ११॥ के वयणाय वि कहहि असुद्वहं । मारु- मारु पभणेहिं विरुद्धहं ||१२|| तं जंपहि रे पाविय - णिग्घिण | कोलवाल किउ मारिय दुज्जण ॥१३॥ तइ किउ लंजिय रासहि कोई । इव संपत्ती तुव जम दूई ॥ १४॥ सुणि वरसेणि सुहउ दुह वयणइ । मारिय जट्टिणि वत्तं समलई ॥१५॥ के पट्टिय गय णरवइ-सरणइ । के लज्जि वि गय वण तव परणई ॥ १६ ॥ पडिउ भजाणउ पुरयणु णदृउ । णं हरि-भीहहिं गय-गणु तदृउ ॥१७॥ पुक्कारंत णरवह णिसुणेपिणु । सरणाई णवयार धरेविणु ॥ १८ ॥ घाउ णरवइ सेणु लए विणु । ॥१९॥ तुरंतउ ॥२॥ जह थिउ अरिजयसिरि संपत्तउ । जम रूवइ धावंतु मारु- मारु पभणंतु सु कुद्धउ । रे कहि जाहि जग्गाइ लद्धउ ॥२१॥ घत्ता तं वयणु सुणेपिणु, गउप्पुल एप्पिणु, दिट्ठउ वंधव - गरुव सुहि । णरवइ पिच्छइ तहु, यहु भायउ महु, Jain Education International माणु-विहंजि विमिलिय सुहि ॥४-१३ ॥ णाम महाराय सिरि अमरसेण चरिए । चउवग्ग सुकहकहाइमयरसेण संभरिए । सिरि पंडिय माणिक्क विरइए । साधु महणा सुय चउधरी देवराज णामं किए । सिरि अमर सेण - वइरसेण मेलाव-वण्णणं चउत्थंइमं परिच्छेयं समाप्तं ॥ संधि ॥ ४॥ युग्मं ॥ येषां योग समुद्दमुद्गरमहद् ध्वाताव संचूण्णितो । वंधt भूरिरनादिकाल निचितो भूत्कर्मणां क्लेशदः । तेत्पो भव्यजनास्तपोधनवराः सप्तर्षि संज्ञाभृतो, नित्यं पुत्रकलत्रधान्यधनदोः कुर्वंतु वो मंगलं ॥ १ ॥ सदानंद सदावृद्ध यावत् सिद्ध-शिवश्रियः । नृप पूज्यः सदा नित्यं देवराजाविरंजय || आशीर्वादः ॥ उक्तं च ॥ साधनां दर्शनं इलाध्यं, इलाध्यं सीलस्त्रिया सदा । श्लाघ्यो धर्मजुतो राजा, श्लाध्ये चारित्र संयमी ॥ १ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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