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चतुर्थ परिच्छेद
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वइरसेन अपना पूर्व शरीर पाकर संक्षेप में कहता है ।।१७।। उसने विद्याधर को बार-बार प्रणाम किया। विद्याधर रुष्ट होकर विष के असर से बेचैन वइरसेन से कहता है ॥१८॥ मैंने रोका था, यह क्या कर्म कर लिया, हिताहित का मर्म नहीं जाना ।।१९।। वइरसेन कहता है-हे आकाशगामी स्वामी ! सुनिए ऐसा कर्म नहीं करूँ॥२०॥ हे राजन् ! अब मुझ पर क्षमा करो, तुम्हारे समान मेरा सज्जन भाई नहीं है ।।२१॥
घत्ता-आकाशगामो विद्याधर से कुमार कहता है हे स्वामी ! दया करके विधाता द्वारा पृथिवी पर निर्मित दोनों इन वृक्षों के गुणों को खोलकर मुझे कहियेगा ॥४-८॥
[४-९] [वइरसेन का दोनों वृक्षों के फलों का प्रभाव ज्ञात करना तथा वेश्या को
उसके किये गये छल का दण्ड देने हेतु विचार-मन्थन-वर्णन ]
वइरसेन का प्रश्न सुनकर आकाशगामी प्रजा का पालक ( विद्याधर ) कहता है-यहाँ ये दोनों वृक्ष मैंने लगाये हैं ।। १।। एक ( वृक्ष ) के फूल को लेकर ( जो ) संघता है ( वह ) तत्काल गधा हो जाता है ।।२।। ( जो मनुष्य ) दूसरे वृक्ष के फूल को सूंघता है ( वह ) अति सुन्दर अपने (पूर्व) रूप में दिखाई देता है ।।३।। यह विद्या गधा और मनुष्य करनेवाली, शत्रु का मान-मर्दन करनेवाली तथा अर्थ-कार्य करनेवाली है ।।४।। विद्याधर का कथन सुनकर राजपुत्र ने कहा-हे स्वामी ! मैं यहीं रहता हूँ ।।५।। तब तो ( इसके पश्चात् ) मुझे शीघ्र घर पहुँचाओ। अपने पुण्य की सहायता से परिवार में ले चलिए ॥६॥ (विद्याधर कहता है-) हे वत्स ! सुनो ! पाँच दिन यहीं रहो, निश्चय से मैं अपने घर से लौटकर आता हूँ ।।७।। ऐसा कहकर जब विद्याधर अपने घर गया ( कुमार ) पाँच दिन सुखपूर्वक रहता है ।।८।। वहाँ कुमार अपने मन से विचार करता है कि सुख-पूर्वक इन दोनों वृक्षों के फूल लेकर इनके तेज से दासो ( वेश्या ) के विभिन्न रहस्य को खोल दूं ॥९-१०॥ सुर-असुर और विद्याधर-जन देख लें। विधि के संयोग से इसके पश्चात् मैं भाई से मिल ।।११।। छल बल पूर्वक मैत्री भाव करके निश्चय से पावली का जोड़ा और आम्रफल लेकर उसे गधा बना कर और उसके ऊपर चढ़कर जहाँ राजा और नगर के लोग हों वहाँ ले जाकर नगर में दौड़ाऊँ, पृथिवी पर बलपूर्वक राजा की सेना को जीतूं ॥१२-१४।। इसके पश्चात् जहाँ राजा हो वहाँ महाजनों को
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