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________________ चतुर्थ परिच्छेद १६७ को घर से सिर पर लेकर वह क्षण भर में सुखपूर्वक आकाश में चला गया ॥२३।। पावली छोड़कर वहाँ देव समूह को देखने वह तत्काल चला गया ।।२४।। घत्ता-इधर वृद्धा वेश्या पावली पर चढ़कर आकाश में उड़ गयी और पुत्री के आवासस्थान पर गयी तथा सुखपूर्वक वह दुष्टा निश्चिन्त होकर सुखदायी निवास स्थान में रहने लगी। कुमार वहीं रहा ।।४-६।। [४-७] [छलपूर्वक वइरसेन की पावली लेकर वेश्या का कामदेव-मंदिर से भाग आना तथा किसी विद्याधर का आकर वइरसेन को सहयोग करने का वचन देकर धैर्य बंधाना ] उस समय कुमार ने कुगति के कारणभूत मिथ्यात्वी मदनदेव को प्रणाम नहीं किया ॥१॥ कुमार जब मन्दिर से निकला, उस समय उसे वेश्या और पावली दिखाई नहीं दी ।।२।। कुमार विचारता है कि-मैं दुबारा छला गया हूँ । वेश्या के अधम चरित को कोई नहीं जानता है ॥३॥ वह ( वेश्या ) लोक में छोटा या बड़ा मनुष्य नहीं जानती, ( केवल) द्रव्य का विचार करती है ।।४।। वेश्या-दामाद हो या इतर मनुष्य । वह धनी पुरुष को हो सम्मान देती है ।।५।। जो धन-हीन होता है वह उसे शीघ्र त्याग देती है, हाथ पकड़कर घर से निकाल देती है ।।६।। लोभ से अन्धी होकर अन्य-अन्य से द्रव्य लेती है और शरण देकर अन्य-अन्य का प्रसार करती है ॥७॥ वेश्या अपनी नहीं होती-यह जानकर ही यतीश्वर ( अपने ) पद में रहकर उसे त्याग देते हैं ।।८। जो दूसरों को पाप-भाव से देखते हैं वे बन्धन, ताडना और मार पाते हैं।।९।। जो कर्म किये हैं वे विफल नहीं होते। निश्चय से वे बिना जाने-समझे माथे आ पड़ते हैं ।।१०।। कुमार ऐसा अपने मन से विचार करके देव-मन्दिर में चिन्ता करता हुआ सुखपूर्वक रहता है ।।११।। इसी बीच शुद्ध-परिणामी एक विद्याधर आकाश से उतरकर देव-मन्दिर में आया ।।१२।। वहाँ विद्याधर ने मदन देवता की वन्दना की। अष्ट द्रव्य से पूजा और स्तुति करने के पश्चात् विद्याधर के द्वारा वइरसेन देखा गया तथा कहाँ से आये हो ? पूछे जाने पर वइरसेन के द्वारा कहा गया ।।१३-१४॥ हे आकाशगामी ! मैं कंचनपुर रहता हूँ। हे स्वामी! यहाँ छल करके वेश्या लाई है ।।१५।। मदनदेव की यात्रा के निमित्त आकाश से पावली ने मुझे गमन करने दिया ।।१६।। निकृष्ट दुष्टा वेश्या के द्वारा मैं ठगा गया हूँ। आकाश से जाने में इष्ट पावली लेकर वह दुष्टा छल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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