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________________ चतुर्थ परिच्छेद [ ४-५ ] [ वइरसेन के प्रति वेश्या का दुर्भाव एवं उसकी पुत्री कामकंदला का सद्भाव-वर्णन ] निश्चय से स्थिर - कीर्ति स्थिर - कार्यों से होती है। संसार में जीव भी स्थिर भव्य और अस्थिर भव्य कर्म से ही होता है || १ || भव्य सुपात्रों को देने से दान स्थिर होता है, शत्रु को भाई बनाने से मैत्री स्थिर होती है ||२|| इसी वेश्या ने भेद लिया है । अपने कार्य के लिए कपट रचता हूँ || ३ || ऐसा विचार करके हर्ष के मारे सहर्ष चित्त से वह धूर्त वइरसेन सुखपूर्वक वेश्या के घर रहता है ||४|| वेश्या के यहाँ कई दिन बीत जाने पर उस वेश्या ने अपनी पुत्री से कहा ||५|| हे पुत्री ! अपने जार स्वामी से शीघ्र पूछो - नदी के प्रवाह के समान सम्पत्ति तुम्हारे पास कहाँ से ( आती है ) ||६|| छल करके उसकी सम्पत्ति ले लें और व्यभिचारी को अपने घर से काढ दें / निकाल दें ||७|| जैसे राजा की देश-पिपासा शान्त नहीं होती, दरिद्रियों के निधियाँ उत्पन्न नहीं होतीं ॥८॥ अग्नि- नगर और वन को नहीं छोड़तो अर्थात् सभी को जला देती हैं, पतिव्रता जैसे अपने शील का खण्डन नहीं करती ||९|| जैसे समुद्र बहुत नदियों से तृप्त नहीं होता, जैसे यतीश्वर कर्म-समूह को काटता है ॥ १० ॥ जैसे इन्द्र की जिनेन्द्र के दर्शन की प्यास तृप्त नहीं होती, वैसे ही हे पुत्री ! हमारी व्यभिचारी के धन से तृप्ति नहीं होती है || ११|| व्यापार के बिना लक्ष्मी नहीं होती । यह स्वेच्छानुसार प्रतिदिन दान देता है || १२ || ऐसा सुनकर ( वेश्या की पुत्री ) कुन्दलता ने कहा - हे माता ! तब तो तेरी जीभ के सौ टुकडे हों जो तू हे दुष्टा ! ऐसे वचन कहती है । हे पापिनी ! फिर इसके पीछे लग गयी ||१३-१४।। पहले लिए हुए इस आम्रफल और इसकी आम्र फल रूप सूर्यगामी निधि निश्चय से उसे दे दे ।। १५ ।। यह मनुष्य प्रतिदिन हमारे घर विविध प्रकार की बहु सम्पदा अर्पित करता है || १६ || १६३ धत्ता - इसका बुरा न कीजिए, इसे बहुत सुख दें। इसके समान दूसरा मनुष्य नहीं है । स्त्रियों के लिए दुर्लभ यह मेरे मन को प्रिय है । इसे पाकर एक क्षण के लिए ( भी ) मत छोड़ो ॥ ४-५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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