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________________ द्वितीय परिच्छेद ११९ छोड़कर विदेश ऐसे स्थान में जाओ जहाँ राजा तुम्हारा नाम न सुने तो तुम कुमारों को अभी शीघ्र छोड़ देते हैं । राजपुत्र चाण्डालों के वचन मान कर चले गये ||७-८|| कुमारों की प्रतिमाओं के सिर कुण्डलों सहित रुधिर सेलित करके राजा के आगे रखकर विनत सिर से ( चाण्डालों ने कहाहे राजन् ! ) तुम्हारे द्वारा कहे गये तुम्हारे लिए अनिष्ट तुम्हारे दोनों पुत्रों के ये सिर तुम्हारी इच्छानुसार लाये गये हैं । ये दोनों श्रेष्ठ अश्व हैं, भली प्रकार ग्रहण करो ।।२-११ ॥ उन्हें (पुत्रों के सिर) देखकर राजा ने चाण्डालों से कहा - फिर मुण्ड लेकर नगर के बाहर जाओ और सूर्य (प्रतिमा) के ऊपर दोनों स्थापित करो जिससे कि नगरवासी आकर उन्हें भी देखें ।।१२-१३।। - - चाण्डाल शीघ्र फिर मुण्ड लेकर वहाँ सूर्य ( प्रतिमा ) के ऊपर स्थापित कर देते हैं । कुमारों का मरण सुनकर राजा की पत्नी के अंगों में हर्ष कहीं नहीं समाता है ॥२८॥ धत्ता [ २-९ ] [विजयादेवी का पुत्र शोक और कुमारों का वन-गमन-वर्णन ] राजा ( देवदत्त ) हँसता है और विजयादेवी रोती है ( और कहती है है कि ) हे राजन् ! प्रजा के लिए तूने यह क्या किया ? || १ || हे स्वामी ! तूने उचित-अनुचित नहीं जाना । रानी के वचन सुनकर दुष्ट राजा हँसा ||२|| ( रानो कहती है- ) निर्दोष, युद्ध में अजेय और सूर्य किरण के समान तेजवान् कुमारों को अकारण मरवाकर आपने मेरी हाय हाय वदी की जबकि मैंने तुम्हारे मन के मनोरथों की पूर्ति की || ३-४ || उसका रुदन सुनकर अति दुखी भव्य जन, तिथंच और पक्षी रोने लगते हैं ||५|| भव्य जनों ने रानी को सम्बोधा कि पुत्र शोक से वियोग का दुःख अच्छा होता है ||६| राजा अपने नगर में सुखपूर्वक रहता है और रति के समान रति-सुख भोगता है ||७|| ऐसा सुनकर राजा के द्वारा मतिमान् से पूछा गया कि स्वेच्छानुसार कुमार कहाँ गये ( उनका ) क्या हुआ ? ||८|| राजा को दुःख देनेवाले शील को निधि वे नगर से कहाँ चले गये ? क्या मर गये ( या ) क्या जीते हैं ||९|| ऐसा सुनकर बुद्धिमान कहता है- हे भव्य देवदत्त राजा सुनिये स्तुति करो कि वध न हुआ हो ||१०|| इसी बीच राजा के भय से सूर्य के समान तेजवान् वे कुमार भी प्राण बचाकर भाग गये || ११ || भूमि पर बहुत चलने के पश्चात् वे ऐसे गहन वन में गये जहाँ वन में वृक्ष अपने कुल को बढ़ाते हैं ||१२|| जहाँ मनुष्य दिखाई नहीं देते, पक्षी ही दिखाई देते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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