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द्वितीय परिच्छेद
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इस प्रकार वे रात्रि में विचार करते हुए सो जाते हैं ॥९-१०॥ सूर्योदय होने पर पुनः राजा की आज्ञा लेकर भी जाकर ( वन में जाकर ) उन्होंने ( राजकुमारों को ) वाड़ी के भीतर बन्द नहीं रखा ।।११।। अमरसेन और वइरसेन दोनों भाई राजा के घोड़ों पर चढ़कर राजा के नन्दन वन में स्वच्छन्द रहकर क्रीड़ा करते हैं ।।१२।। तब चाण्डाल कहते हैं-हे कुमार भाइयों ! राजा के द्वारा हम तुम लोगों को मारने के लिए भेजे गये हैं ।।१३।। तुम्हारे झूठे कलंक को सुनकर । हम ) आये हैं। अब अपने मन में वीतराग देव का स्मरण करो ॥१४॥ मरणकाल में तुम्हारे हाथ और पैरों की सुशोभित अँगुलियों की सरलता सुगति को देनेवाली है ।।१५।। उनके वचन सुनकर राजपुत्रों ने कहा-यहाँ हमने राजा का क्या अपराध किया है ।।१६॥
घत्ता-राजा ने भला नहीं किया। निष्कारण राजा बहुमूल्य वचन ( कहकर ) हम पर कुपित हए। हमारा दोष हृदय में नहीं विचारा । मारने के लिए क्या ( हम ) कृमि प्रतीत होते हैं ।।२-७॥ ____ कहा भी है-राजा सर्प के समान और दुःखां से रानी क र और टेडीमेड़ी चाल चलने वाली तथा सर्प की कांचुली में आसक्त सर्पिणी के समान है। सभी प्रकार से दग्ध जीव या सर्प-दंश से दग्ध मणि-मंत्र आदि औषधियों से स्वस्थ देखा गया है किन्तु राजा के दृष्टि-विष से दग्ध को पुनः उठते ( विकास करते) नहीं देखा गया ॥१-२॥
[२-८] [ अमरसेन-वइरसेन का कर्म-फल-चिन्तन, तथा उन्हें जीवित रहने
देने का मातंग-चिन्तित उपाय-वर्णन ] वे दोनों भाई परस्पर में कहते हैं हे भाई ! मेरे द्वारा वह राजा जाना जाता है ( मैं राजा को जानता हूँ ) ॥॥ निश्चय से राजा का दोष नहीं जानो । हमें क्यों रोक कर विरमाया जा रहा है। घोड़े हिन-हिना रहे हैं ||२|| माता अथवा पिता का दोष नहीं होता है। ( यह तो) शुभ और अशुभ कर्मों का परिणमन कहा है ।।३।। पूर्वोपार्जित कर्म छूटते नहीं। जैसे भाल में साथ लिये है ( उन्हीं के अनुसार जीव ) संसार भ्रमण करता है ॥४॥ हे यम चाण्डाल ! राजा की शान्ति करो, हमारे सिर के टुकड़ेटुकड़े करो, अब शीघ्रता करो ।।५।। ऐसा सुनकर चाण्डालों के दया भाव उत्पन्न हुआ । वे कुमारों से गुप्त बातें कहते हैं ।।६।। यदि अपने नगर को
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