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________________ १११ द्वितीय परिच्छेद के अनेक भेद, तर्क वैसे ही प्राप्त हो गये जैसे आकाश में घूमने के पश्चात् चक्र चक्री को प्राप्त हो जाता है ।।१-३|| गुरु ने परम सत्य, छह द्रव्य और इसके पश्चात् सात तत्त्व बतलाये ||४|| अमरसेन और वइरसेन धर्म, अर्थ और काम तीनों वर्गों तथा दोनों नय समग्रतः जानकर आगम, शास्त्र, मणि, मंत्र, तंत्र, अपूर्व औषधियाँ, उनके अनुपाल, मंत्र, गन्धर्व, गीत, नृत्य-भेद, अश्व-गज आदि अनेक वाहन-विधियाँ और सम्पूर्ण निर्दोष विद्याकोश सीख करके घर आये ।।५-८।। राजा और स्वजन तथा पुरजनों को प्रिय वे दोनों दोज के चन्द्रमा की कलाओं के समान बढ़ते हैं ॥९॥ यौवन-श्री से शरीर सम्पन्न होने पर वहाँ बहु प्रकार की कला और विज्ञान सीखकर उन दोनों के द्वारा अपने देह-सौन्दर्य से कामदेव वैसे ही जीत लिया गया जैसे जैनधर्म में शुद्ध भावों से काम को जीत लिया जाता है ।।१०-११॥ वे दोनों कुमार घोड़ों पर बैठकर सुखपूर्वक वनक्रीड़ा को जाते हुए ऐसे लगते हैं मानों नागकूमार ही जा रहे हों ।।१२॥ राजा के राज्य रूपी धुरों को धारण करनेवाले, सुख की खदान वे दोनों राजकुमार राजा और नगर-वासियों का अमृतोपम-मीठो वाणी से अनुरंजन करते हैं ॥१३॥ पत्ता-वहाँ शास्त्रों के अर्थ की व्याख्या करने में कुशल, गुण-रत्नाकर अमरसेन और वइरसेन दोनों पराक्रमी भाई प्रतिदिन माता-पिता के चरणों में वन्दना करते हैं ।।२-४।। ___क्योंकि कहा है-शैशव अवस्था में विद्याभ्यास, यौवन में विषय-भोग, वृद्धावस्था में मुनिवृत्ति तथा अन्त में योगी के समान शरीर का त्याग करे ।।१।। विद्वान् और राजा की कभी तुलना नहीं की जा सकती। राजा अपने देश में ही पूजा जाता है ( जबकि ) विद्वान् सर्वत्र सम्मान पाता है ॥२॥ ॥ गाथा ।। विधाता के द्वारा नये यौवन और महान् रूप-सौन्दर्य से कामदेव के समान रचे गये वे दोनों कुमार स्त्रियों के मन में हिये के हार स्वरूप निर्मित किये गये थे ।।३।। [२-५] [ गजपुर की रानी देवश्री का अमरसेन-वइरसेन को मारने का माया जाल तथा राजा देवदत्त का रानी को सान्त्वना देना] शत्रओं को अजेय वे दोनों कुमार निज ज्ञान से जन-जन का अनुरंजन करते हैं और सुख पूर्वक रहते हैं ।।१।। इसी बीच राजा की प्राणों से अधिक .प्रिय एवं विश्वासपात्र अपनी सौतेली माता के द्वारा कुमारों का पराक्रम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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