SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ “१०८ अमरसेणचरिउ णं हरि परिहरि अवयरियई। णं लवणं कुसइंद-पडिदई ॥२०॥ घत्ता जं पुन्व-भवंतर, जिणु-पुज्जिउकर, पाविउ उत्तिम जम्मु भुवि । संपुण्णहं गम्भहं णव मासहं तह, उप्पण्णई जुयलाई भवि ॥२-२॥ [२-३ ] सुह दिणहि सुमुहुत्तहिं वेरहिं । लग्गुण पुण्णई मयण समेहि ॥१॥ भउ उच्छउ गरवइ-सुयह जम्मु । मंगलु गाइज्जइ तिह-हरम्मु ॥२॥ बद्धतहं तोरण णिवहं दारि । विरदावलि भट्ट भणंति वारि ॥३॥ वहु वायइं वज्जिय विविह णाय । गच्चंति विलासिणि अइ सराइ ॥४॥ दुहिय दलिद्दि य दाणे पोसिय । वत्थाहरण सुयण संतोसिय ॥५॥ गरुवहं णाम किउ अमरसेणु । लहुवह णामं किउ वइरसेणु ॥६॥ वुत्तइ जहिं असेसहि धण्णइ । वद्दइ वाल आसिकय पुण्णइ ॥७॥ माया-पियरहो णेहु जणंतई । वियसियमुहुँ सयहिं रंजंतई ॥४॥ करि कराई जुवइहिं खिज्जतई। वालइ माय-थणे कोलंतई ॥९॥ पुणु माया-पियरहि मतेप्पिणु । अइ लाडणु बहु दोसु मुणेप्पिणु ॥१०॥ विहि पुठवें सुणुहुत्तें जोएं । उज्झायहु जि समप्पिउ वेएं ॥११॥ उज्झाए पुणु बहु सुव-धामें । पडिगाहिय सो जस सिरि कामें ॥१२॥ घत्ता अकचटतप वग्गइं, मुणि वि समग्गई, अक्खर-भेउ पयासियउ । सक्कहं पाइय विहि, देसि सयल लिहि, गण वित्थरु वि समासियउ ॥२-३॥ [ २-४] गुरुणा उवएसिउ तहं सुअंगु। लक्खणु-लंकार-विहत्ति-लिंगु ॥१॥ उवएसिय संधि-समास भव्य । वायरण-भेय णाणा जि कम्य ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy