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________________ प्रथम परिच्छेद जो पुण्य कार्य करता है वही परम तृप्ति को पाता है ||९|| यही कारण है कि हे सेठ ! हम पर द्रव्य नहीं लेते । अपने स्थिर मन से जिनेन्द्र की आराधना करते हैं || १०|| ऐसा सुनकर सेठ को दुःख उत्पन्न हुआ । ( वह विचारता है कि ) ये भाई भव्य हैं, शुद्धभाववाले हैं, (इनके मन में जिनेन्द्र (विराजमान ) हैं || ११ || मन, वचन और काय से पर-वस्तु का त्याग करके भक्त ये दोनों भाई भवसागर से शीघ्र पार हो जानेवाले हैं । उस पर निकल जाने वाले हैं ||१२|| जैनधर्म पर जिन्होंने चित्त लगाया है उन दोनों भाइयों को वह सेट यतिवर विश्वकीति के पास ले गया ||१३|| कहा भी हैबहुत मान-सम्मान सहित वन्दना करना, गुण-स्तुति करना, उपसर्गों का ( निवारण करना ), दोषों का गोपन करना और उपकार के लिए गुरु को दान देना इस प्रकार गुरुपूजा पाँच प्रकार की होती है । सेठ अभयंकर बार-बार गुरु से कहता है । हे मुनिवर ! ये दोनों भाई निश्चय से मेरी द्रव्य से जिनेन्द्र को नहीं पूजते हैं । हे साधु इन भव्य ( पुरुषों से ) इसका कारण पूछो ॥१४- १५ ॥ ऐसा सुनकर तीन ज्ञान के धारी, शील की खदान गुरु अमृतमय वाणी से कहते हैं - हे कर्मचारी भाई ! जिननाथ को पूजो ॥१६-१७ || जिससे जीव सुरेन्द्र, नरेन्द्र, नागेन्द्र पद पाता है, दुर्गति को हरनेवाली जिनेन्द्र की पूजा तुम क्यों नहीं करते || १८ || ऐसा सुनकर धण्णंकर और पुण्णंकर भली प्रकार प्रत्युत्तर स्वरूप कहते हैंहे स्वामी ! निज द्रव्य से हम फूल लेते हैं और जिनेन्द्र की पूजा तथा स्तुति करते हैं ।। १९-२०।। ऐसा सुनकर यति विश्वकीर्ति कहते हैं - हे भव्य ! यदि तुम्हारे पास कुछ द्रव्य है तो (पूजा) करो ॥२१॥ घत्ता - उन दोनों कर्मचारियों में एक कर्मचारी ने मधुर वाणी से कहा - हे यति ! मेरे पास पाँच कौड़ियाँ हैं । हे विद्वान् मुनि ! उन कौड़ियों के मूल्य से अमूल्य पुण्य कैसे प्राप्त कर सकता हूँ || १-२१|| गुरु ने कहाजल में तेल, दुष्ट पुरुष को कथित रहस्य, सत्पात्र को दिया गया किंचित् दान और बुद्धिमान को दिया गया शास्त्र स्वयमेव ही सुशक्ति से फैल जाते हैं । --- ९९ कहा भी है- जिसके ( पास ) धन होता है वही मनुष्य कुलीन, वही पंडित, वही श्रुतज्ञ और गुणवान तथा वह ही वक्ता और दर्शनीय होता होता है । यथार्थ में सभी गुण द्रव्याश्रित हैं अथवा द्रव्य का आश्रय लेते हैं ॥ छ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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