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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का बैन धर्म एवं साहित्य में योगदान व्याख्या निडरता से करते थे। अनेकों चैत्यवासी उनकी कठोर चर्या से प्रभावित हुए और अपनी चैत्यवास में प्राप्त सुविधाओं का त्याग करके विशुद्धमार्गी बन गये । अनेक चैत्यवासी आचार्य जिनदत्तसूरिजी के शिष्य बनने के लिए कटिबद्ध हो गये। उस समय के एक प्रसिद्ध चैत्यवासी आचार्य जयदेवाचार्य ने भी दादागुरु के उपदेश से अपने मार्ग को व्यर्थ समझकर त्यागने का निर्णय लिया और गुरुदेव की शरण स्वीकार करने के लिए लालायित हो गये । उन्होने गुरुदेव के सामने अनेक शंकाए प्रस्तुत की। गुरुदेव ने आगम-सम्मत-शास्त्रों का संदर्भ देते हुए उनका समाधान किया। जयदेवाचार्य सामान्य आचार्य नहीं थे। जयदेवाचार्य अनेकों के मार्गदर्शक और गुरु थे। उनका समर्पण सभी के लिए प्रेरणाप्रद रहा। आचार्य जिनदत्तसूरिजी की विद्वत्ता, साधना और तपस्या से प्रभावित होकर दूसरे भी तत्कालीन चैत्यवासी विमलचन्द्र, गुणचन्द्रगणि आदि ने आपका शिष्यत्वस्वीकार किया और चैत्यवास का त्याग करके वसतीवास की उपसम्पदा ग्रहण कर ली। १९ गुरुदेव का शिष्य समुदाय बढ़ने लगा। गुरुदेव ने रुद्रपल्ली में भगवान ऋषभदेव और पार्श्वनाथ जिन मंदिरों की प्रतिष्ठा सम्पन्न करवायी थी। गुरुदेव के प्रवचन जनता को राग से विराग की ओर ले जाने वाले थे। गुरुदेव की अमृतमय वाणी सुनने में जनता तल्लीन हो जाती थी। गुरुदेव प्रत्येक विद्या में पारंगत थे। चाहे साधना का क्षेत्र हो, चाहे प्रवचनपटुता का हो, चाहे साहित्य सर्जन का- सभी क्षेत्रों में आप दक्ष थे। आपने व्याघ्रपुर में आपके एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ “चर्चरी'' की रचना की। चर्चरी ग्रंथ के अन्तर्गत जिनमंदिर में क्या-क्या क्रियाएँ करनी चाहिये, किन-किन क्रियाओं से जिनआज्ञा की अवज्ञा होती है और वे अवज्ञाएँ कैसे भव-भ्रमणा को बढ़ा देती हैंइनका विवरण है। विक्रमपुर में स्वाध्याय प्रेमी श्रावकों के लिये यह चर्चरी ग्रंथ भेजा गया। यह चर्चा एक चैत्यवासी परम्परा में श्रद्धा धरानेवाले प्रतिष्ठित श्रावक देवधर ने सुनी और उपाश्रय में पहुँच कर तुरन्त ग्रंथ को फाड़ दिया। उपस्थित श्रावकों की १९. एक गुरु का शिष्य अन्य गुरु को गुरु के रूप में स्वीकार करता है उसे “उपसम्पदा' कहते है। खर. युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि-जिनविजयजी-१८. २०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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