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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
सिद्धंतसुत्तजुत्तीहिं जमिह गीयत्थसूरिमायरियं । न कुणंति तं पमाणं पयडंति य समयमाहप्यं ।। २७ ।। पुत्तिं विणावि गिहिणो कुणंति चेलंचलेण किइकम्मं । पाउरणेणं खंधे कहण जइणो परिभमन्ति ॥ २८ ।। कुगुरुकयपारतंता सुत्तुत्तं विसयमवि यऽयाणंता। विहिपडिकूला संतो जं मुणसु तमुसुत्तं ।। २९ ।। गणणाईया लोया उस्सुत्ताणं निदंसिया समए। इह जे जिणदत्ताणं मन्नंति कुणंति ताणि न ते॥३०॥ इत्युत्सूत्रपदोद्घाटनकुलकं कृतं श्रीजिनदत्तेन ॥
उत्सूत्रपदोद्घाटनकुलक (भाषान्तर)
श्लोक १. जहाँ पर देवमन्दिर में गृहस्थ की तरह वेषधारी साधु निवास करते हैं उसको सूत्र में देवमन्दिर नहीं कहा क्योंकि अनायतन में ज्ञानवृद्धि नहीं होती। निश्राकृत और अनिश्राकृत मन्दिर लाभ के हेतु हैं । सिद्धान्त में भी प्रसिद्ध है फिर भी बालजीव गृहा करते हैं। २. जिन-चैत्य और मठों में यतिवेषधारी निवास करते हैं उसका निश्चय ही श्रावकों को त्याग करना चाहिये। ३. उत्सूत्रदेशना के द्वारा वसतीवासी साधु श्रावकों को प्रतिबोध करे तो वह चैत्य अनायतन होता है। ४. रात्रि में युवतियों का चैत्यप्रवेश, जिनप्रतिष्ठा, स्नान करना, नैवेद्यदान यह सब उत्सूत्र हैं। ५. श्रावक चैत्यवासी मूल प्रतिमा को पूजते हैं और वीर जिनेश्वर का गर्भापहरण कल्याणक नहीं होता है। ६. अभी भी साधुओं के मासकल्प विहार में दोष नहीं है। श्रावक और श्राविकाएँ प्रतिमा वहन करते हैं। इसमें चार प्रतिमाएँ हैं। ७. (कंडुक संगरिका)कडुय सागरिया द्विदल नहीं होती है, ऐसा कहनेवाले अनंत काय के विराधक होते हैं।
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