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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान श्रुतस्तव (भाषान्तर)
श्लोक १.मोह और मान का मंथन करनेवाले वीतराग, विशुद्ध ध्यान से निर्मल केवलज्ञान को प्राप्त करनेवाले, स्वर्णमय देह को धारण करनेवाले,
२. लोकालोक को जानकर तीर्थप्रवर्तन के समय पर चतुर्विध देवगण से निर्मित त्रिलोक शरण्य समोसरण में (विराजकर ),
३.
शरणागतजनों के रक्षण में समर्थ, प्रवचन के रचयिता और भवरूपी दावानल लिए जल समान धीर ऐसे वीर जिनेश्वर,
से
४. स्वयं ने द्वादशांगी को अर्थ रूप में प्रकाशित की है - और गणधरों ने सूत्र उसकी रचना की हैं,
५. उस द्वादशांगी में आचारांगसूत्र प्रथम है:- जिसमें पंच विध आचार का विस्तृत विचार समर्पित है, ऐसा मुनिगुणगण को प्रकाशित करनेवाला आचारांग सूत्र- उस भव (संसार) को दूर करो।
६.
ग्रथित (सूत्रित) किये हुए सूत्रों के शितपट्ट वाला, श्रेष्ठ वचन रूपी फलकवाला, सूत्रकृतांग रूपी पोत प्राणियों को भवजलधि को पार कराने वाला हो । ७. समग्र पदार्थो के स्थानभूत प्रधानज्ञान और संदेहसमूह को नाश करनेवाले समवायांग को वंदन करता हूँ ।
८.
उस पंचम अंग को नमस्कार करो जिसको नमस्कार करके प्राणी पंचम गति प्राप्त करता है । पापक्षयकारी पंचम अंग का दूसरा नाम भगवती है।
९.
ज्ञाताधर्मकथा भव विरह (मोक्ष) देनेवाला अंग है और उपासकदशांग को मैं हर्ष से पुलकित होकर नमस्कार करता हूँ ।
१०. जगत् में भव भ्रमण का नाश करनेवाले अंतकृत्दशांग, अनुत्तरोपातिक दशांग और प्रश्नव्याकरण सूत्र जयवंत हैं ।
११.
1
सुख दुःख के विपाक को दर्शानेवाला विपाकसूत्र ग्यारहवाँ अंग है । और जहाँ पर दुष्टों की दृष्टि का प्रवाद नष्ट होता है ऐसे दृष्टिवाद को नमस्कार करता हूँ । १२- १३. उत्पादपूर्व, अग्रायणी, वीर्यप्रवाद यह तीसरा, अस्तिनास्तिप्रवाद और पांचवाँ ज्ञान प्रवाद, सत्य प्रवाद, आत्म प्रवाद, आठवाँ कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुवाद
प्रवाद, कल्याण प्रवाद,
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