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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान आचार्य श्री भद्र जीवों को बोध देते हुए कहते हैं कि
वेषधारी साधुओं का सत्संग न करें। संसार में बहुत से लुञ्चित एवं मुण्डित दिखलायी पड़ते हैं परन्तु उनमें ज्ञान कम पर रागद्वेष ज्यादा दिखाई पड़ता है। वे शास्त्र पढ़ते हैं, निवर्चन व्याख्यान करते हैं किन्तु परमार्थ नहीं जानते । ऐसे वेषधारी साधु संसार में रहनेवाले भद्र जीवों को ठगते हैं। इसी कारण ये अपनी अविवेकपूर्ण बुद्धि से संसार में भ्रमण करते रहते हैं।
कबीर ने भी इसका विरोध करते हुए कहा है
“मन न रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा," अर्थात् वास्तविक साधुता तो आन्तरिक मन के द्वारा ही की जा सकती है। दूसरे शब्दों में कहें तो मन में रहे हुए कषायों के शमन से मुक्ति प्राप्त होती है। जो मन के द्वारा साधु बनता है, सदाचरण करता है, दुराचार एवं दुराचारियों का विरोध करता है वहीं सच्चा साधु है। जो सम्यक्त्व को प्राप्त करने की इच्छावालें हैं उन्हें सही अर्थों में सुगुरु एवं कुगुरु की पहचान करना आवश्यक है।
आचार्य श्री कुगुरु एवं सुगुरु का अन्तर एक सुन्दर रूपक के द्वारा बतलाते
हैं।
दुद्ध होइ गोयक्किहि धवलउ पर पेजंतइ अंतरु बहलउ। एक्कु सरीरि सुक्खु संपाडइ
अवरु पियउ पुणु मंसु वि साडइ ॥ १०॥ गाय और आक का दुग्ध धवलता में न होता है। परन्तु आन्तरिक रूप से बहुत ही अन्तर वाला होता है एक तो (गोदुग्ध)मानसिक एवं शारीरिक शक्ति को पुष्ट करता है जबकि दूसरा आक का दूध मनुष्य की शक्ति को विनष्ट कर देता है।
गाय का दूध और आंकड़ेका दूध बाह्य रूप से समान होता है, लेकिन पीने से वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है।
___ गाय का दूध मीठा एवं गुणकारी होता है परन्तु आक का दूध “तूरा लगता है। गाय का दूध शरीर के अवयवों को पुष्ट करता है। तो आक का दूध शरीर का विनाश करता है। इसी प्रकार सुगुरु और कुगुरु बाह्य दृष्टि से समान होते हैं। लेकिन आन्तरिक दृष्टि में बड़ा अन्तर होता है। एक भव्यात्मा को सन्मार्ग में प्रेरित कर मुक्ति पथ बतलाता है तो दूसरा कुमार्ग में प्रवृत्त कर नरकगामी बनाता है । कुगुरु एक प्रकार से आन्तरिक
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