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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान ___“यह चर्चरी नृत्य करनेवाले “प्रथममंजरी''भाषा में गाते थे अर्थात् “यह भाषा निबद्ध-गान नाच नाच कर गाया जाता है। इस प्रकार इस नृत्य गीतात्मक कृति के द्वारा गुरु की स्तुति की है।
प्रारम्भ में भाषा के विषय में विवरण दिया जा चुका है फिर भी उदाहरण की दृष्टि से देखें तो चर्चरी की भाषा तत्कालीन समाज में प्रचलित अपभ्रंश भाषा है । यत्रतत्र प्राप्त सरल हिन्दी के रूपों से स्पष्ट होता है कि किस प्रकार अपभ्रंश भाषा विकसित होकर नया मोड़ ले रही थी। सरल हिन्दी के स्वरूप के उदाहरण -
जो वायरणु वियाणइ सुह-लक्खण-निलउ स? असद्दु वियारइ सुवियक्खण-तिलड। सुच्छिंदिण वक्खाणइ छंदु जु सुजइमउ,
गुरु लहु लहि पइठावइ नरहिउ विजयमउ ।। ३ ।। प्रस्तुत गाथा देखने से ही आचार्यश्री की सरल अपभ्रंश का अनुमान हम कर सकते हैं। आप की भाषा में अनेक तत्कालीन देश्य शब्द भी देखे जाते हैं।
छन्दः
मात्र एक ही प्रकार का छन्द अर्थात् “रासावलय” नामक मात्रिक छन्द का प्रयोग साद्यान्त इस ग्रन्थ में हैं।
रासावलय छन्द में ६+४+६+५=२१ मात्राएं पायी जाती हैं। उदा.
नमिवि जिणेसरधम्मह तिहुयणसामियह। पायकमलु ससि-निम्मलु सिवगयगामियह । करिमि जहट्ठिय गुणथुई सिरिजिणवल्लहह। युगपवरागमसूरिहि गुणिगणदुल्लहह॥
(चर्चरी पद्य सं. १) रस :
प्रस्तुत "चर्चरी”नामक ग्रन्थ में जैनधर्म की सैद्धान्तिक चर्चा हुई है। जैन आचार्य शान्तिप्रिय थे और सर्वत्र शान्ति का वातावरण भी प्रसारित करना चाहते थे। इसलिए उनकी रचनाओं में सर्वत्र “शान्त' रस ही अवलोकनीय है। पुनः गुरु व धर्म के वर्णन में ऐतिहासिक सांस्कृतिक तथा साहित्यिक दृष्टि से इस ग्रन्थ का महत्त्व अपने आप में अनूठा है।
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