________________
(२)
युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
१७९ संमिश्रण शान्त' में तिरोहित हो जाता है। जीवन में शम का महत्त्व उन्होने जाना है, आचरण में अपनाया है और धर्म के आलंबन में निरूपित भी किया है। समस्त रास साहित्य की मुख्य संवेदना ही भौतिक जीवन पर आध्यात्मिक जीवन की विजय है। उपदेश रसायन रास में भी शान्त रस मिलता है।
अलंकार
अलंकारों में उपमा, रूपक, अनुप्रास, श्लेष आदि का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। गुरुवर्णन में तो उपमा ही उपमा दिखायी पड़ती है।
उदाहरण निम्न प्रकार हैं :रूपक अलंकारः
“जिणमुह-पंकउ विरला वंछहि।''३४ मुख कमल अर्थात् कमलरूपी मुख दर्शन सभी करना चाहते हैं । यहाँ पर रूपक अलंकार है।
इह विसमी गुरुगिरिहिं समुट्टिय लोयपवाह- सरिय कुपट्ठिय। जसु गुरुपोउ नत्थि सो निज्जइ
तसु पवाहि पडियउ परिखिज्जइ ॥६ यहाँ लोकप्रवाह को सरिता का और गुरु को पोत का रूप दिया गया है।
गुरु-पवहणु निप्पुन्नि न लब्भइ तिणि पवाहि जणु पडियउ वुब्भइ। सा संसार-समुद्दि पइट्ठी
जहि सुक्खह वत्ता वि पणट्ठी ।। ८ गुरु-पवहणु
- गुरु रूपी प्रवहण-जहाज संसार-समुद्द - संसार रूपी समुद्र श्लेष अलंकार:
खज्जइ सावएहिं सुबहुत्तिहिं भिज्जइ सामएहिं गुरुगत्तिहिं। वग्घसंघ- भय पडइ सु खड्डह पडियउ होउ सु कूडउ हड्डह ॥ १४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org