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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
बेटा-बेटी परिणाविजहिं ते वि समाणधम्मघरि दिजहिं विसमधम्मघरि जइ वीवाहइ
तो सम(म्म)त्तु सुनिच्छइ वाहइ। ६३ ॥ गृहस्थ लोग अपने बेटा बेटी समान कुल शील वालों के साथ व्याहतें हैं। श्रावकों को चाहिये कि समान धर्म वाले को लड़की दें। विषम-दूसरे धर्म वाले से अगर विवाह किया जाता है तो उससे निश्चय करके सम्यक्त्व में बाधा पहँचती है।
___ बालक बालिकाओं का विवाह अच्छी तरह से एवं अपने ही धर्म में करना चाहिये। जिससे धर्म का उत्तरोत्तर विकास होता है।
__ गृहस्थ पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता इसलिये उसके अनियन्त्रित जीवन को नियन्त्रित करने के लिए विवाह का विधान किया है।
विवाह का अर्थ- स्त्री पुरूष को जीवनभर के लिये स्नेह और सहयोग के सूत्र में बंध जाना। उस बंधन में केवल काम-भावना की प्रमुखता नहीं होती किन्तु उच्च संकल्प और उच्च ध्येय के साथ जीवन के क्षेत्र में विशिष्टता के साथ वहन करने को विवाह कहा है। वह विवाह हरेक के साथ किया जाये। इसके लिए प्रस्तुत मार्गानुसारी में दो बाते बताई है :
(१) समान कुल और (२) अन्य गोत्र आचार्य हेमचन्द्राचार्यसूरि के अनुसार
समान कुल और शील वाले परिवार के साथ वैवाहिक सम्बन्ध किया जा सकता है। बालक-बालिकाओं के शादी-विवाह भी अच्छी तरह से एवं अपने ही धर्म वालों में करना चाहिए। जिससे धर्म का उत्तरोत्तर विकास होता है। विषम धर्मवालों के घर सम्बन्ध करने से निश्चय ही सम्यक्त्व की हानि होती है । अर्थात् सम्यक्त्व में विध्न-बाधाएं उपस्थित होती है।
धन एवं समृद्धि की चर्चा करते हुए आचार्य श्री का कहना है कि
सद्गृहस्थधर्मी के लिए धन एक मूलभूतआवश्यकता है। धन से अर्थात् स्वल्प धन से भी संसार के सावध कार्यों को पूर्ण कर लेना सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। विधिपूर्वक एवं धार्मिक धन से ही परिवार संचालन का आग्रह रखना चाहिए । आर्थिक समृद्धि होने पर भी धन का सदुपयोग ही करना चाहिए। उसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। २४. “कुलशीलसमैः सार्धकृतो विवाहोऽन्य गौत्रजै।" योगशास्त्र-१/४७
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