________________
युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
१५९ हरिवंश पुराण के दूसरे पर्व के ८९ वें अध्याय में प्रारम्भ के २२ श्लोक में रास का सर्व प्रथम उल्लेख मिलता है। इन श्लोकों में बलराम और रेवती की क्रीड़ा का वर्णन है। उसमें रास शब्द सातवें और बाइसवें श्लोक में है। इस प्रकार रास अर्थात्-हरिवंश पुराण-के उल्लेखानुसार
(१) "वाद्य संगीत तथा संकीर्तनात्मक कथागीत के साथ हाथ से ताली देकर मनोहर ढंग से और हावभाव के साथ विविध भाषा, आकृति-वेश से युक्त होकर किया जानेवाला ललित नृत्य अर्थात् रास' ४
(२) ई.स.तीसरी-चौथी सदी के महाकवि भासरचित बालचरित नाटक में भी "दामोदर कृष्ण गोपियों के साथ हल्लीसक खेलने आते हैं।"
(३) हरिवंशपुराण के बाद ब्रह्मपुराण और विष्णुपुराण में भी ‘रास' और'रासगोष्ठि'शब्द का उल्लेख मिलता है।
“रास के लिए उत्सुक कृष्ण गोपियों ने शरद की मनोरम चाँदनी का आनन्द प्राप्त किया।"
इसके बाद आठवीं शताब्दी में रचित अग्निपुराण में हल्लीसक एवं रासक ऐसे दो शब्द देखने को मिलते हैं।
(३) भरतमुनि प्रणीत नाट्यशास्त्र की टीका के रचयिता अभिनवगुप्त ने अभिनव भारती ग्रन्थ-१ अध्याय-४ की कारिका २६८-२६९ के उल्लेखानुसार
“जो नृत्त गोलाकार हो, जिसमें एक ही नायक हो जैसे कि-कई गोपियों में एक हरि उसे हल्लीसक कहते हैं।''तथा “चित्रविचित्र ताल और लयवाली अनेक नर्तकियों के द्वारा योजित ६४ युगलोतक सुकोमल और उद्धत प्रयोगवाला नृत्त अर्थात् रासक'६
चक्रर्ह सन्त्यश्च तथैव रासं तद्देशभाषाकृतिवेष:युक्ताः । सहस्ततालं ललितं सलीलं वरांगनामंगलंभृताङ्गायः ।।
हरिवंश पुराण-पर्व-२, अध्याय८९, श्लोक-७ गोपी परिवृत्तो रात्रिं शरच्चन्द्र मनोरमाम् । मानयामास गोविन्दो रासारम्भे रसोत्सुकः॥ ब्रह्मपुराण अध्याय-८१, श्लोक-२१. अभिनव भारती अध्याय-४, ग्रन्थ-१
मण्डलेन तु यन्नृत्तं हल्लीसकमितिस्मृतम् । एकस्तत्र तु नेता स्याद् नोवस्त्रीणां यथा हारिठं ॥ २६८ ॥ अनेकनर्तकीयोग्यं चित्रताललयान्वितम् । आचतुः पृषष्टि युगलाद रासकं नसणोद्वतम् ।। २६८ ॥
www.jainelibrary.org
Jain Education International