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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
भी स्पष्ट परिलक्षित है।
इस कुलक के माध्यम से सुधर्मास्वामी से लेकर अन्तिम युगप्रधान दुःप्रसह साधु तक युगपन आचार्य की संख्या का निरूपण किया गया है। तथा शिथिलाचारी साधुओं की जानचर्या का और युगप्रधानाचार्य के स्वरूप का सुंदर निरूपण किया गया है । उपदेशकुलक में चैत्यवासियों के प्रति विद्रोहात्मक विचारों को क्रियान्वित किया गया है
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१३. शान्तिपर्व विधि
देवाहिदेव पूजाविहि इमो भवियणणुग्गहट्टाए । उपदिशति श्री जिनदत्तसूरिभिराम्नायतः सद्गुरोः ।।
( ग्रंथाग्र. २६९ ) आचार्य जिनदत्तसूरि रचित शान्तिपर्व विधि का हमें केवल एक श्लोक प्राप्त है, वह प्रकाशित है।
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विषय-वस्तु :
आचार्यश्री ने इस अन्तिम श्लोक में स्वनामोल्लेख किया है। इसमें देवाधिदेव पूजा विधि वर्णित है।
की
अन्तिम श्लोक का अनुवाद :
'भविजनों के उत्कर्ष हेतु यहाँ देवाधिदेव की पूजा में "जिनदत्तसूरि" द्वारा सद्गुरु की आम्नाय उपदिष्ट की जाती है।'
प्रस्तुत श्लोक से मालूम होता है कि शान्तिपर्व विधि स्तोत्र में पूजा-विधि सम्बन्धी यह स्तोत्र हो ऐसा उक्त श्लोक से ज्ञात होता है । अन्तिम श्लोक में ग्रंथाग्र संख्या २६९ लिखा है, इससे मालूम पड़ता है कि यह स्तोत्र बड़ा होना चाहिए । इस स्तोत्र के अन्तिम श्लोक की प्रथम पंक्ति प्राकृत भाषा में तथा द्वितीय पंक्ति संस्कृत में । अतः यह कृति प्राकृत भाषा में होनी चाहिये ऐसी कल्पना हम कर सकते हैं।
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८५.
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युगप्रधान जिनदत्तसूरि- अगरचंदजी नाहटा, पृ. १९१
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