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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान १५१ भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के साढे बारहसौ वर्ष पश्चात् भस्म राशी के प्रभाव से शिथिलाचारी साधु होने लगे, यथार्थ मार्गस्थ साधु विरले ही दिखाई देते थे। ये शिथिलाचारी साधु शास्त्ररचना भी करते थे । पर वे शास्त्रोक्त बातों से अनभिज्ञ थे, इसलिए वे विविध भोजनार्थी साधु श्रावकों के पिछलग्गू होते थे। ये शिथिलाचारी षट्-काय जीवों की विराधना हिंसा करने लगे और श्रुत का नाश होने लगा। असत्शास्त्रों का अभ्यास करने लगे। ये सुखशीलिए अर्थात् शिथिलाचारी साधु चैत्यवास-मठवास में रहने लगे। गृहस्थों के गृहवास में रहने लगे। गीतार्थ गुरुओं की आज्ञा से बाह्य और दुष्कर क्रियाशील होने पर भी सूत्र व उसके अर्थ में शंका करनेवाले और गुरु पारतन्त्रय (अर्थात् गुरु संरक्षरता से रहित)रहित उत्सूत्रों का भाषण करने लगे, मिथ्यात्वी और चारित्रगुणों से रहित होने लगे, गुणवान श्रावकों की उपेक्षा करने लगे, इस प्रकार ये शिथिलाचारी साधु बढ़ने लगे। ये ऋषिघातक, गौ घातक, बालघातक पापकर्ता से भी अधिक पापी अर्थात् इनकी हत्या करने से जो पाप लगता है, उससे भी अधिक पापी शिथिलाचारी साधु हैं । जो उपरोक्त आचरण करते हैं, वे पापी जीव भयंकर भवार्णव में कोटाकोटी सागरोपम जैसे दीर्घकाल तक मर मर के भ्रमण किया वह तो मात्र उत्सूत्र की आंशिक प्ररूपणा जनित कटु विपाक है। (८ से १८) इस हुण्डा अवसर्पिणी काल में असयंतपूजा और भस्मराशी ग्रह के प्रभाव के कारण शास्त्रोक्त क्रिया एवं आचार का पालन करनेवाले सुसाधुजन अत्यल्प होने लगे और वेषधारी पार्श्वस्थ-कुशील आदिको की बहुलता बढ़ने लगी। चैत्यवास का प्रचारप्रसार बढ़ने लगा। ये चैत्यवासी जिनशासन और प्रवचन के लिए असमाधिकारक होंगे और स्वयं के लिये अकल्याणकारी होंगे। ये शिथिलाचारी असत्शास्त्रों का पठन पाठन करते है, मंदिरों में निवास करते हैं, सिद्धान्त शास्त्र विपरीत आचरण करते हैं। ऐसे शिथिलाचारी समाज को भी उसी गड्ढे में धकेलते हैं जिससे इनके भव-भ्रमण की वद्धि होगी। इस प्रकार चैत्यवासी शिथिलाचारियों की मान्यता शास्त्रविरुद्ध होने से त्याज्य और निन्द्य है। वे चैत्यवासी अनन्तकाल तक भवभ्रमण करते रहते हैं। ऐसे चैत्यवासियों का सहवास भी त्यागने योग्य जिनागमों में बताया है। इस काल में कितने युगप्रधान आचार्य होंगे, उनकी संख्या बताते है : इत्थं चायरियाणं पणपण्णं हुं कोडि लक्खाउ । कोडि सहस्से कोडि सयए य तह एत्तिए चेव ॥ १९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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