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________________ १३६ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान अब प्रश्न है:- द्रव्यलिङ्गी शिथिलाचारियों को नमस्कार करना चाहिये या नहीं? कीरइ न वत्ति जं, दव्वलिंगिणो वंदणं इमं पुटुं । तत्थेयं पच्चुत्तरं लिहियं आवस्सयाईसु ।। ३१ पासत्थाई वंदमाणस्स नेव कीति न निज्जरा होइ। कार्याकलेसं एमेव, कुणइ तह कम्मबंधं च ।। ३२ जो पुण कारणजाए, जाए वायाइयो नमोकारो। कीरइ सो साहूणं, सढाणं सो पुण निसिद्धो ॥ ३३ द्रव्यलिंगियों के प्रति आवश्यकादि सूत्रों में लिखा है कि-पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारियों को वंदन करते हुए श्रद्धालु व्यक्ति को न कीर्ति और न निर्जरा ही प्राप्ति होती है। किन्तु केवल कायक्लेश व कर्मबन्ध ही प्राप्त होता है। किन्ही कारणों के उत्पन्न होने पर भी शिथिलाचारियों से साधु वाचिक नमस्कार करें। श्रद्धालु श्रावकों के लिये तो उन्हें वाचिक नमस्कार करना भी निषिद्ध है क्योंकि श्रावक आगम सम्मत विशिष्ट विचारों से अनभिज्ञ रहते हैं। (३१ से ३३) श्राद्धदिनकृत्य सूत्र में कहा है कि: पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाछन्द इन पाँचों से परिचय नहीं करना और नहीं वार्तालाप करना, क्योंकि पासत्थादिक को वंदन आदि करने से अपकीर्ति होती है, निर्जरा नहीं होती केवल कायक्लेश और कर्मबन्ध होता है।४ महानिशीथसूत्र में:___ पार्श्वस्थ आदि पाँचों का संसर्ग, दर्शन, बात-चीत करना. परिचय करना, सहवास करना आदि का निषेध किया है।६५ ६४. ___ श्राद्धदिन कृत्यसूत्र- जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर, पृ.१२६ “एयं नाउण संसगिं दरिसणालाव-संथवं। सवासं च हियाकंखी, सव्वोंवाएहिं वजए।" "(महानिसीह सुत्तं-सम्पा. दीपरत्नसागर-२/३/४२९, पृष्ठ-३२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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