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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
पुरओ दल्लह महिवल्लहस्स, अणहिलवाडए पयडं।
मुक्काविआ रिऊणं सीहेण व दव्वलिंगि गया॥१०॥ सिंह की तरह द्रव्यालिंगी रूप हाथियों का मद विदार करके-अर्थात् “द्रव्यलिंगी रूप हाथी' में रूपक अलंकार है। (४) दसमच्छेरयनिसि विप्फुरंत सच्छंदसूरि मयतिमिर ।
सूरेण व सूरिजिणेसरेण हय महिअदोसेण ।। ११ ।। 'अंधकार रूपी मृग को हनन करने वाले इस रूपक से यहाँ रूपक अलंकार
पडिअनवंगसुत्तत्थरयणकोसो पणासिअ-पओसो।
भवभीयभविअजणमण, कय संतोसो विगय दोसो ॥ १३ ॥ प्रस्तुत गाथा में ठाणादि नवांग (सूत्रों को रत्नकोश का रूप दिया गया है) अतएव रूपक अलंकार है।
भीमभवकाणणम्मि दंसिअगुरुवयणरयणसंदोहो।
नीसेस-सत्त गुरुओ सूरि जिणवल्लहो जयइ ।। १६ ॥ भीवभवकाणणम्मि अर्थात् भयंकर संसाररूप जंगल में-रूपक अलंकार है। उपमा एवं अनुप्रास अलंकार :
परिहरिअ सत्थबाहा हय दहदाहा सिवंब-तरुसाहा।
संपाविअ सुह-लाहा, खीरोदहिणुव्व अग्गाहा ॥४॥ खीरोदहि णु व्व अग्गाहा अर्थात् खीर समुद्र के समान अगाध यहाँ पर समानता होने के कारण उपमा अलंकार है। सत्थवाहा, दुहदाहा, तरुसाहा, सुहलाहा और अग्गाहा शब्दोंसे सुंदर अनुप्रास अलंकार बनता है । दुहदाहा और सिवंबतरु में रूपक रहा है। (२) सुगुरु-जण-जणिय-पुज्जा सज्जो निरवज्ज गहिय पवज्जा।
सिवसुहसाहणसज्जा, भवगुरुगिरिचूरणवज्जा।॥५॥ भव गुरुरूप पर्वतों को चूर्ण करने में वज्र रूप में रूपक अलंकार है । यहाँ पर भी 'पूज्जो.....वज्जा में अनुप्रास अलंकार है।
सिरिवद्धमाणसूरि पयडीकय-सूरिमंत-माहप्पो।
पडिहय-कसाय-पसरो, सरय-ससंकु व्व सुह-जणओ॥८॥ सरय ससंकु व्व सुह- शरद ऋतु के सुन्दर निर्मल चन्द्र के समान सुख जनक। यहाँ पर आचार्य श्री की तुलना शरदकालीन चन्द्र से की गयी है अतः उपमा अलंकार है।
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