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________________ स्वरूप, खाद्य-अखाद्य बावीस प्रकार के अभक्ष्य आदि विषयों का संवेदात्मक उल्लेख किया गया है। “संदेह दोलावली' ग्रंथ में सद्गुरुओं का वर्णन, एवं तत्कालिन गृहस्थों को सुगुरुजनों के प्रति किस प्रकार व्यवहार करना आदि विषयों का निरूपण किया गया है। संदेह दोलावली ग्रंथ के नामकरण से ही ज्ञात होता है कि इस कृति के अन्तर्गत सम्यक्त्वमूलक प्रेषित प्रश्नों के उत्तर में आचार्य जिनदत्त सूरिजी ने इस ग्रंथ का प्रणयन किया है । “उपदेश कुलक' में जैन सिद्धान्त के मूलभूत अंगों में युगप्रधान के स्वरूप का निरूपण किया गया है। “उत्सूत्रपदोद्घाटन कुलक" में यह बताया गया है कि जिनालय में चैत्यवासियों का निवास अनुचित है। चैत्यवास में होती आशातनाओं का वर्णन और पूजाविधि किस प्रकार की जाय आदि विषयों का निरूपण किया गया है। चतुर्थ प्रकरण (क)में अपभ्रंश रचनाओं को लिया गया है, उसमें सर्वप्रथम "चर्चरी ग्रंथ' का विश्लेषण किया गया है। चर्चरी क्या है यह समजाया गया है। चर्चरी में युगप्रधान आचार्य श्री जिनवल्लभसूरिजी की स्तुति की गई है । पुनः अनाचारी चैत्यवासियों के अविधिमार्ग का उच्छेद कर वसतिवसहि की स्थापना का विस्तृत उल्लेख किया गया है। अन्त में यहाँ तक लिखा गया है कि जिस अनायतन चैत्य में लिङ्गी निवास करते है वहाँ श्रावक-श्राविका और वसतिवास करने वाले साधुओं को नहीं जाना चाहिए। दूसरी कृति “उपदेश रसायन रास' है, जिसमें रास की परिभाषाओं के साथ उसे स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। उपदेश रसायन रास के अन्तर्गत मनुष्य जीवन की सार्थकता पूर्ण करने के लिए विभिन्न प्रकार के उपदेश दिये गये है। साथ में यह भी बताया गया है कि दुर्लभ मानव जीवन पाकर उसे व्यर्थ नहीं खो देना चाहिए। सुगुरु एवं कुगुरु का वर्णन दृष्टान्त के साथ किया गया है। इसके अलावा धार्मिकों के आचारविचार, युगप्रधान आचार्यों का वर्णन किया गया है। अन्त में उत्तम श्रावकों के धर्म को लेकर श्रावक के जीवन एवं परलोक सुधारने की चर्चा की गई है। “कालस्वरूप कुलक' में ग्रह की स्थिति पर प्रकाश डालकर एवं सुगुरु और कुगुरु का वर्णन, उनकी पहचान तथा श्रावकों के लिए हितोपदेश आदि विषयों का निरूपण किया गया है। अन्तिम पञ्चम प्रकरण उपसंहार में दादाश्री जिनदत्तसूरिजी के समग्र जीवन और कृतियों में दिखाई दे रही उनकी प्रचण्ड प्रतिभा का उद्धाटन करते हुए समग्र भारतीय और विशेष करके जैन साहित्य में उनके योगदान के प्रति ध्यान आकर्षिक किया गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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