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________________ ८६ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान संसार में प्रकाशवान रहते हैं। प्राकृत भाषा का “अत्थमण' (अस्तमन) शब्द यह अर्थ व्यक्त करता है कि- महात्माओं का मन काम विकारादि विषयों से दूर रहता है। वे जितेन्द्रिय होते हैं। आचार्य श्री देवभद्रसूरिजी विषयों के स्पर्श से दूर रहते हैं। आचार्य भगवन्त वासनालिप्त नहीं होते हैं। तब ये अत्थमण अर्थात् अस्तमन करनेवाले सूर्य एवं चन्द्र उनकी तुलना में भला कैसे टिक सकते हैं ? अर्थात् कदापि नहीं। सूर्य और चन्द्रमा तो नक्षत्रमार्ग से चलते हुए मेष, मीन और मकरादि राशियों का भी भोग करते हैं। जबकि सदाचार युक्त आचार्यलोक उन मेषादि का उपभोग अर्थात् मांसाहार नहीं करते हैं। इस प्रकार उपरोक्त विवरण के आधार पर स्पष्ट से कहा जा सकता है कि सन्त भगवन्त आचार्य एवं गुरुजनवृन्द तो क्षत्र(सदाचार)के विरुद्ध नक्षत्र (दुराचारों)में भी पड़कर कभी भी मेष (भेड़ा), मीन (मछली) और मकर का सेवन (भोजन)नहीं करते हैं। परमपूज्य देवभद्रसूरिजी तो सदैव सन्मार्ग गामी होने के कारण सत्य और अहिंसा के वरेण्य दूत हैं । इस प्रकार सूर्य तथा चन्द्रमा से भी श्रेष्ठ समझने की प्रवृत्ति देवभद्रसूरिजी के प्रति भक्ति भावना को अधिक प्रभावती बना रही है। अपने गण के संस्थापक गुरु जिनवल्लभसूरिजी की बहुत ही प्रौढ़ शब्दों में तरह-तरह से स्तवना की गयी है। युगप्रवर श्री जिनवल्लभसूरिजी के जीवन-चरित्र पर बड़ा ही सुन्दर कवित्व मय प्रकाश डाला है। (गणधर. गा.७८ से १०६) । प्रस्तुत कृति की रचना का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य ऐतिहासिक गुरुपरम्परा, वसतिवास का समर्थन, जिन मन्दिर में होती आशातनाओं का वर्णन एवं मुनिधर्म की श्रेष्ठता प्रतीत होता है। आचार्य श्री जिनदत्तसूरिजी वसतिवासादि के समर्थन में बताते हैं कि जिस चैत्य में वीतराग भगवान की भक्ति में तल्लीन साधुभगवन्त संसार संताप का नाश करते हैं , उस मन्दिर में रात्रि के समय गीत, नृत्य, वाद्य, बलिपूजा, प्रतिष्ठा आदि वर्जित हैं। उन्होंने ऐसे उत्सूत्र भाषक के प्रति निषेधात्मक रीति से समकालीन सामाजिक परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि- जिनेश्वर के मन्दिर में जार स्त्रियाँ रति उत्पन्न करती हैं उस पाप के कारण रात्रि का निष्पाप कैने माना जा सकता उपरोक्त बातों का पुष्टीकरण करते हुए श्री हरिभद्रसूरिजी भी चैत्यों में निषिद्ध बातों का वर्णन करते हुए बताते हैं कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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