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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
मैं लोभ हारकर पीडित हूँ, सन्मति ने जब सब कुछ छोड़ा । मैं मोह पराजित भटक रहा, जब त्राता ने बन्धन तोड़ा ॥ १
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कवित्त या मनहरण :
इस छन्द के प्रत्येक चरण में ३१ वर्ण होते हैं। इसमें सोलहवें वर्ण पर यति होती है । अन्तिम वर्ण गुरू (ड) होता है। शेष वर्णो के लिए लघु-गुरू के क्रम का कोई बन्धन नहीं होता
१.
२.
३.
वीतराग देव छद्मस्थ पनैं जोग और, सूक्ष्म सांपराय और गुणस्थान जहीं हैं । क्षुधा तृषा शीत उष्ण दंश मशक चरजा, सेज्या सन बंधरु अलाभ रोग सही हैं ॥ तृण स्पर्श मल स्पर्श प्रज्ञा एहि चतुर्दश, परीषह कहूँ करम जोग तै लही हैं। सबै मुनि उपशम गुणस्थान ताही लग, बाईस परीषा उदैचारिततैं कहीं हैं ॥
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गीतिका :
गीतिका के प्रत्येक चरण में १४-१२ की यति से २६ मात्राएँ होती है । अन्त में क्रमशः लघु-गुरू होते हैं । इस छन्द के प्रत्येक चरण के तीसरे, दसवें सत्रहवें और चौवीसवें मात्रा स्थान पर लघु वर्ग होना चाहिए
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पाख मास उपास साधते, ध्यान घरि कालहि हनै । जाहि भोजन निमित्त ग्रामहि, तहां विधि कछु नहि बनै ॥ खेद उर तस करत नाहीं, परम समता थिर रहैं । क्षुधा इहि विधि सहत जे मुनि, तिनहु के हम पद गहैं ॥ ३
" वीरायण" : कवि मित्रजी, “उद्धार", सर्ग - १३, पृ. ३१४
“वर्धमान पुराण" : कवि नवलशाह, दशम अधिकार, पद सं. ३१५, पृ.१३८ वही, पद सं. २९३, पृ. १३४
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