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प्रबंध के आधार पर अलंकार - दर्शन :
प्रवर्तकों ने अलंकारो को काव्य का मुख्य तत्व स्वीकार कर इसे काव्य का शोभादायक तत्व माना। इन्होने बताया कि जिस प्रकार आभूषणों के बिना कोई रमणी सुशोभित नहीं हो सकती उसी प्रकार अलंकारों के अभाव में काव्य भी शोभित नहीं हो सकता । प्रवर्तकों ने कहा है कि सुंदर काव्य की रचना के लिए उसका दोष रहित एवं अलंकारयुक्त होना अत्यावश्यक है ।
प्राचीन अलंकारवादियों में अंलकारो के विषय में बड़ा मतभेद है। फिर भी हम उन मतभेदों में न पड़कर आधुनिक हिन्दी - कवियों के आधार पर रचित भगवान महावीर काव्य के अन्तर्गत विविध अलंकारो को यहाँ प्रस्तुत करेगे ।
महाकाव्यों के अनुरुप वर्धमान काव्य में वर्णन - सौंदर्य, पद- लालित्य, अर्थगाम्भीर्य, रस-1 - निर्झर और काव्य कौशल सभी कुछ है। पद-पद पर उपमाओं, रुपको की मनोहारिणी लड़ी पिरोई है । त्रिशला - कल्प- वल्लरी है -
उपमा:
सुपुष्पिता दन्त-प्रभा प्रभाव से नृपालिका पल्लविता सुपाणि से।
हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
यशोदा का विरह :
कविने रानी त्रिशला और राजा सिद्धार्थ के प्रेमालाप का सुंदर चित्रण खींचा है, जो भावों के अनुकूल उपमा अलंकार का स्वाभाविक सर्जन हुआ हैऐसी फूटी हंसी कि जैसे गिरीसे निर्झर फूट पड़े हो ।
बाहुपाश में जकड़ लिया ज्यों कल्पलता सुरतरु जकड़े हो । २
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१.
२.
सुकेशिनी मेचक-भृंग- यूथ से । अनल्प थी शोभित कल्प वल्लरी ॥ १
महावीर के संग यशोदा, ज्यों प्राणों की धड़कन । उर से उर एकान्त हुआ था, बिछुडा केवल तन ॥
"वर्द्धमान" : कवि अनूपशर्मा, सर्ग - १, पद-५९, पृ.५० "भगवान महावीर " : कवि शर्माजी, सर्ग - २, पृ. १९
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