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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
काव्यमें भाषा की महत्ता काव्यका भाषा के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रायः सभी प्रसंगों में काव्यमें भाषा के अनेक तत्व भरे पड़े हैं-कहीं अनुस्यूत रुपमें कहीं समन्वित रुपमें, कहीं आनुषंगिक रुपमें और कहीं काव्य चमत्कार के उपकारक रुप में। वस्तुतः स्वयं काव्यका शरीर ही भाषा है-काव्य सौन्दर्य भाषा से ठीक उसी प्रकार अलग नहीं कर सकते जिस प्रकार त्वचा के रंगको उससे अलग नहीं कर सकते अथवा पुष्प के रंगोको उस की पंखुड़ियों से अलग नहीं कर सकते।
वास्तवमें यह भाषा का ही प्रसाद है कि यह सब लोक-व्यवहार चल रहा है, तथा यह सम्पूर्ण जगत शब्द रुपी ज्योति के बिना अन्धकारमय बन जाता है। विशुद्ध भाषा तो कामधेनु गाय है, किन्तु अशुद्ध भाषा प्रयोक्ताकी मूर्खता की द्योतक है। काव्य में अत्यल्प दोष भी काव्य को उस प्रकार कुरुप बना देता जिस प्रकार सुंदर शरीर को कुष्ठ रोग का एक भी दाग कुरुप बना देता है। अतः हम कह सकते है कि काव्यमें काव्यमयी भाषाका विशेष स्थान है। (अ) शब्द-शक्तिः
किसी उक्ति में शब्द और अर्थ दोनोंका होना अनिवार्य है। शब्दविहीन अर्थ और अर्थ हीन शब्द की कल्पना की ही नहीं जा सकती। शब्द और अर्थ एक दूसरे से मिले-जुले रहते हैं। शब्द और अर्थ के इसी सम्बन्ध को शक्ति कहते हैं। शब्द-शक्ति के तीन भेद हैं- अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। अभिद्याः
शब्दकी जिस शक्ति के कारण किसी शब्द का (साधारण प्रचलित) मुख्य या संकेतिक अर्थ समझा जाता है उसे अभिधा शक्ति कहते हैं। लक्षणाः
__ वाक्यके अन्तर्गत किसी शब्द के वाच्यार्थ का बाध होने पर उसीसे सम्बद्ध किन्तु भिन्न अर्थात् अन्य अर्थ किसी रुढि या विशेष प्रयोजन से लिया जाता है । वह लक्षणा शक्ति कही जाती है। कवियोंने अपने काव्यों में लक्षणाशक्ति के विभिन्न उदाहरण सुंदर ढंग से प्रस्तुत किये हैं
एक बावला हाथी कबसे ऊधम मचा रहा था।
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