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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
दो यक्ष जिनेश्वर की चमरों, से सेवा करने में रत थे। मानो यो बारम्बार चमर, प्रभु के समक्ष होते नत थे।
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भगवान अर्धमागधी भाषाा में उपदेश देते थे। विश्व के समस्त प्राणी अपनी अपनी भाषा में समझ लेते थे -
लोक भाषा का चलता दौर मागधी भाषा की चितचौर भाव भाषा थे पूर्ण सरल मधुर निर्मल ज्यों गंगाजल
. *** ले परिकर प्रभु आये पुलकित हुआ तभी गुणशीलोद्यान । समवशरण की अनुपम रचना, की देवों ने धर प्रभु ध्यान। प्रातिहार्य थे अष्ट सुशोभित, मध्य विराजित थे भगवान। सुरनर और तिर्यंच सभी थे, करते वजनामृत का पान । ३
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भगवान महावीर के शिष्य गोशाला ने गुरू द्रोही बनकर क्रोधानिग्न से वशीभूत होकर भगवान पर तेजोलेश्या छोड़ी। किन्तु भगवान की अलौकिक शक्ति के सामने वह तेजोलेश्या भगवान के चारों ओर प्रदक्षिणा करती हुई लौटकर वापिस आयी
किन्तु सामने महावीर तो शांत रहे, तेजोलेश्या उन पर क्या प्रभाव करती। तन के चारों और घूमकर लौट चली, केवलज्ञान के जैसे वंदन करती।
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“परमज्योति महावीर" : कवि सुधेशजी, सर्ग-२०, पृ.५२५ "तीर्थंकर महावीर" : कवि गुप्तजी, सर्ग-७, पृ. २८६ “चरम तीर्थंकर महावीर" : श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरि म. पद. सं. २१०, पृ.५४ "श्रमण भगवान महावीर" कवि योधेयजी, सोपान-८, पृ.३३५
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